________________ प्रस्तावना के समकालीन थे। अपनी पत्रिका में उन्होंने पं. दौलतराम का और भूधरदास का उल्लेख किया है / पं. जयचन्द छाबड़ा, पं. सेवाराम, पं. सदासुख आदि उनके पश्चात्वर्ती विद्वान हैं। पं. जयचन्द छाबड़ा ने यह उल्लेख किया है कि ग्यारह वर्ष के पश्चात् मैंने जिनमार्ग की सुध ली। वि.सं. 1821 में जयपुर में इन्द्रध्वज-विधान का महोत्सव हुआ था। उसमें सम्मिलित होकर आचार्यकल्प पं. टोडरमलजी के आध्यात्मिक प्रवचनों से प्रभावित होकर उनका झुकाव जैनधर्म की ओर हुआ था। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि पं. रायमल्लजी की लिखी हुई पत्रिका उस युग का सबसे बड़ा दस्तावेज है जो जयपुर में तथा निकटवर्ती क्षेत्रों में जैनधर्म की वास्तविक स्थिति पर सम्यक् प्रकाश डालने वाला है। उनके साहित्यिक कर्तृत्व का उल्लेख करते हुए पं. सेवाराम जी कहते हैं - वासी श्री जयपुर तनौ, टोडरमल्ल क्रिपाल / ता प्रसंग को पाय कै, गहयौ सुपंथ विसाल / / गोम्मटसारादिक तनै, सिद्धान्तन में सार / प्रवर बोध जिनके उदै, महाकवि निरधार / / फुनि ताके तट दूसरो, रायमल्ल बुधराज / जुगल मल्ल जब ये जुरे, और मल्ल किह काज / / (शान्तिनाथपुराणवचनिका-प्रशस्ति) पं. रायमल्लजी ने पत्रिका में अपने जीवन के विषय में जो उल्लेख किया है, उससे यह निश्चित हो जाता है कि 22 वर्ष तक उनको धार्मिक ज्ञान नहीं था। शाहपुरा में उनको यथार्थ धर्म-बोध प्राप्त हुआ। वहाँ वे 7 वर्ष रहे। 29 वर्ष की अवस्था में वे उदयपुर गये और वहाँ पर पं. दौलतरामजी कासलीवाल से मिले / पं. दौलतरामजी जयपुर के राजा जयसिंह के वकील थे। ब्र. रायमल कुछ दिनों तक शाहपुरा में रहे। फिर पं. टोडरमलजी से मिलने के लिए पहले जयपुर, आगरा, फिर सिंघाणा गये / कहा जाता है कि गोम्मटसार की टीका प्रारंभ होने के (क्योंकि ब्र. रायमल्ल के अनुसार उक्त