________________ श्रावक-वर्णनाधिकार 55 भावार्थ:- तीर्थंकर पद अथवा सिद्ध पद पाता है, यह न्याय ही है / जैसा बीज बोया जाता है वैसा ही फल लगता है / ऐसा नहीं है कि बीज तो अन्य वस्तु का बोया हो तथा फल कुछ अन्य ही लगे, ऐसा त्रिकाल, त्रिलोक में कहीं होता नहीं यह नियम है / जगत की प्रवृत्ति भी इस ही प्रकार की देखी जाती है, जैसा-जैसा ही अनाज बोया जाता है, वैसावैसा ही अन्न उत्पन्न होता है / जैसा-जैसा ही वृक्ष का बीज बोया जाता है वृक्ष से वैसे-वैसे ही फल उत्पन्न होते हैं / जैसा-जैसा ही पुरुष स्त्री का अथवा तिर्यन्चों का संयोग होता है, उनके वैसी ही सन्तान की उत्पत्ति होती है / इसप्रकार ही बीज के अनुसार फल की उत्पत्ति जानना / इस ही लिये श्री गुरु कहते हैं, हे पुत्र ! हे भव्य ! तू अपात्र को छोडकर सुपात्र के लिये दान दे अथवा अनुकम्पा (करुणा) करके दुःखित भूखे जीवों का पोषण कर जिससे उनके कष्ट दूर हों / हट्टे-कट्टे, सुन्दरपुष्ट अथवा अपने गुरुपने का मान जताने वालों को अत्यअल्प मात्र भी दान देना उचित नहीं है। अपात्र-दान और कैसा है ? जैसे मुर्दे की शव-यात्रा निकाली जाती है, (उस पर) रुपये-पैसे उछाले जाते हैं जिन्हें चांडाल आदि चुन-चुन कर उठा लेते हैं एवं मुख से धन्य-धन्य कहते जाते हैं, परन्तु दान करने वाला घर का मालिक तो ज्यों-ज्यों देखता है त्यों-त्यों छाती (सीना) ही कूटता है, उसीप्रकार कुपात्र को दान देने पर लोभी पुरुष यश तो गाते हैं पर ऐसे दान के कारण तो दाता को नरक आदि ही जाना पडता है / सम्यक्त्व सहित हो उसे तो पात्र जानना, सम्यक्त्व नहीं हो पर चारित्र हो उसे कुपात्र जानना तथा सम्यक्त्व एवं चारित्र दोनों ही न हो वे अपात्र (हैं उनको दान देने का) फल नरक आदि अनन्त संसार है। सर्व प्रकार ही दान न दे, वह कैसा है ? श्मशान में पडे मुर्दे के समान है। धन है वह इसका मांस है, इसका कुटुम्ब-परिवार है वह (इसके लिये) गिद्ध पक्षी हैं जो इसके धन रूपी मांस को खा रहे हैं / विषय-कषाय रूपी