________________ कुदेवादि का स्वरूप 279 परीक्षा प्रधानी पुरुष को उत्तम कहा है / परीक्षा प्रधानी पुरुषों के ही कार्य सिद्ध होते हैं / छहों मतों (सांख्य, नैयायिक, वैषाषिक आदि मतों) में पदार्थों का स्वरूप भिन्न-भिन्न कहा है / अतः बुद्धिमान पुरुष ऐसा विचार करते हैं - छहों मतों में से कोई एक मत ही सत्य हो सकता है, छहों तो सत्य हैं नहीं, क्योंकि उनमें परस्पर विरोध है / किस मत की आज्ञा मानें, यह कैसे निरधार हो, अत: परीक्षा करना ही उचित है / परीक्षा करने के पश्चात् अनुमान से मिलान होना, वही प्रमाण है / उन छहों मतों के अतिरिक्त भी एक सर्वज्ञ-वीतराग का मत है, उस मत में जो पदार्थों का स्वरूप कहा है वह ही अनुमान (तर्क से सिद्ध वस्तु स्वरूप) से मिलता है, अतः सर्वज्ञ-वीतराग का मत ही प्रमाण (सच्चा) है, क्योंकि वह ही अनुमान से मेल खाता है / ___ अन्य मतों में जैसा वस्तु-स्वरूप कहा है वह अनुमान (तर्क) से मेल नही खाता, अत: वे मत अप्रमाण हैं / मुझे राग-द्वेष का अभाव है, जैसा वस्तु का स्वरूप था, वैसा ही तर्क से प्रमाण किया है, मुझे राग-द्वेष होते तो मैं भी अन्यथा श्रद्धान कर लेता / राग-द्वेष के चले जाने पर अन्यथा श्रद्धान होता नहीं, जैसा जाने वैसा ही बताने में राग-द्वेष है नहीं / रागद्वेष तो तब कहा जावे जब वस्तु का स्वरूप तो कुछ हो तथा राग-द्वेष से प्रेरित होकर बताया कुछ अन्य ही जावे / मुझे ज्ञानवरण के क्षयोपशम से यथार्थ ज्ञान हुआ है, मैं भी सर्वज्ञ (होने की शक्ति वाला) हूँ / केवलज्ञान जैसा मेरा निज स्वरूप है / अभी कुछ दिन कर्म के उदय के कारण ज्ञान की हीनता दिखती है, तो क्या हुआ ? वस्तु के द्रव्यत्व स्वभाव में तो कुछ बदलाव (होता) नहीं है / अभी भी मुझे जितना ज्ञान है वह केवलज्ञान का बीज (केवलज्ञान उत्पन्न कर देने की शक्ति वाला) है / अत: मेरी बुद्धि ठीक है , इसमें कोई संदेह मत करो / इसप्रकार सामान्य रूप से छह द्रव्यों का स्वरूप कहा।