________________ 277 कुदेवादि का स्वरूप हैं / एक जीव (के प्रदेश) तीन लोक के प्रदेशों प्रमाण हैं, उनमें संकोचविस्तार शक्ति है, उसके कारण ही कर्मों के निमित्त से सदैव शरीर के आकार प्रमाण (जितना) है, अवगाहना शक्ति से तीन लोक प्रमाण हैं। आत्मा जिस शरीर को प्राप्त करता है उसकी ही अवगाहना में समा जाता है / पुद्गल का (एक परमाणु का) आकार एक रुई के तार के अग्र भाग के असंख्यातवें भाग है तथा गोल षटकोण रूप हैं। धर्म, अधर्म द्रव्य का आकार तीन लोक प्रमाण है, अत: उन्हें सर्व व्यापी कहा जाता है / काल अमूर्तिक है, पुद्गल के सदृश्य एक प्रदेश मात्र एक कालाणु है / जीव तो चेतन द्रव्य है, शेष पांचों द्रव्य अचेतन है / पुद्गल मूर्तिक द्रव्य है, शेष पांचों द्रव्य अमूर्तिक है / आकाश द्रव्य लोक तथा अलोक सब स्थानों में पाया जाता है, शेष पांचों लोक में ही पाये जाते हैं / जीव तथा पुद्गल द्रव्य धर्म द्रव्य के निमित्त से क्षेत्र से क्षेत्रान्तर गमन करते हैं तथा जीव पुद्गल को छोडकर शेष चार द्रव्य अनादि निधन ध्रुव अर्थात स्थित (एक ही स्थान पर ठहरे) हैं / जीव तथा पुद्गल तो स्वभाव से शुभ तथा अशुभ दोनों रूप परिणमन करते हैं तथा शेष चारों द्रव्य स्वभाव रूप ही परिणमन करते हैं, विभाव रूप नहीं परिणमते / जीव तो सुख-दु:ख रूप परिणमता है (सुख-दुःख का वेदन करता है ) तथा शेष पांचों द्रव्य सुख-दुःख का वेदन नहीं करते / जीव तो स्वयं सहित सर्व के स्वभाव को अन्यों से भिन्न जानता है, शेष पांचों द्रव्य न तो स्वयं को जानते हैं न ही अन्य को / काल द्रव्य के निमित्त से पांचों द्रव्य परिणमन करते हैं तथा काल द्रव्य स्वयं ही अपने आप परिणमन करता है / जीव पुद्गल के निमित्त से (अथवा अन्य जीव को निमित्त से) राग आदि अशुद्ध भावरूप परिणमता है / जीव कर्म के निमित्त से नाना प्रकार के दुःख सहता है तथा संसार में नाना प्रकार की पर्यायें धारण करता हुआ भ्रमण करता है तथा कर्म के निमित्त से ही (उसका ज्ञान) आच्छादित होता है, इस को औपाधिक भाव कहते हैं / कर्मों से रहित हुआ जीव