________________ 14 ज्ञानानन्द श्रावकाचार भावार्थ :- मुनियों के तो परिणामों का ही महत्व है, बाह्य क्रिया से प्रयोजन नहीं है / जिस प्रवृत्ति से परिणामों में विशुद्धि की वृद्धि हो तथा ज्ञान का क्षयोपशम बढ़े वही आचरण करते हैं / ज्ञान वैराग्य आत्मा का निज लक्षण है उसी को चाहते हैं / ___ अब मुनिराज कैसे (कहां) ध्यान में स्थित होते हैं और कैसे विहार करते हैं तथा कैसे राजा आदि आकर कैसे (उनकी) वंदना करते हैं, वह कहते हैं / मुनि तो वन में अथवा श्मशान में अथवा पर्वत की गुफा में अथवा पर्वत के शिखर पर अथवा शिला पर ध्यान करते हैं तथा नगर आदि से राजा अथवा विद्याधर अथवा देव वंदना के लिये आते हैं, मुनि को ध्यान अवस्था में देखकर दूर से ही नमस्कार कर वहां ही खडे रह जाते हैं। __ कुछ पुरुषों को ऐसी इच्छा होती है कि कब मुनिराज का ध्यान खुले और कब मैं निकट जाकर प्रश्न करूं अथवा (उनका) उपदेश सुनकर प्रश्न (मन की शंका) का उत्तर (समाधान) पाऊं तथा अतीत अनागत की पर्यायों को जानूं, इत्यादि अनेक प्रकार के स्वरूप को गुरु के मुख से जानना चाहते हैं तथा कई पुरुष खडे-खडे विचार करते हैं / कुछ पुरुष नमस्कार करके वापस लौट जाते हैं / कुछ ऐसा विचार करते हैं कि मैं मुनिराज का उपदेश सुने बिना घर जाकर क्या करूँगा? मैं तो मुनि के उपदेश के बिना अतृप्त हूँ तथा मुझे तो नाना प्रकार के संदेह हैं, एवं नाना प्रकार के प्रश्न हैं जिनका दयालु गुरु बिना अन्य कौन निवारण करेगा, इसलिये हे भाई ! मैं तो जब मुनिराज का ध्यान खुलेगा तब तक खडा ही हूँ। ____ मुनिराज हैं वे तो परम दयालु हैं फिर भी वे अपने हित को छोडकर हमें उपदेश कैसे देंगे? इसलिये मुनिराज को अपना आगमन मत जनाओ, वे कदाचित हमारे आगमन से ध्यान से विचलित हो जावेंगे तो हमें अपराध लगेगा, इसलिये चुपचाप ही रहो तथा कोई परस्पर ऐसा कहते हैं - हे भाई ! मुनिराजों की क्या दशा है ? काष्ट, पाषाण की मूर्ति की