________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार क्रिया से तो प्रयोजन है नहीं तथा जो अठाईस मूलगुणों को ग्रहण किया है उनमें अतिचार लगाते नहीं हैं / इसके उपरान्त भी जो क्रिया सहन (पालन) करते हैं वह उपयोग लगाने के अनुसार (जैसे ज्ञान में उपयोग अधिक लगे वैसे) ही करते हैं। उसी का कथन करते हैं - यदि भोजन से शरीर को प्रबल होता जानते हैं तो ऐसा विचार करते हैं कि यह शरीर प्रबल होगा तो प्रमाद को उत्पन्न करेगा, इसलिये एक-दो दिन भोजन का त्याग करना ही उचित है। यदि भोजन का त्याग करने से शरीर को क्षीण होता जानते हैं तो ऐसा विचार करते हैं कि यह शरीर क्षीण होगा तो परिणामों को शिथिल करेगा तथा परिणाम शिथिल होंगे तो ध्यानाध्ययन नहीं सधेगा, शरीर से हमें बैर तो है नहीं, अत: (ऐसा नहीं विचारते कि) जो हो सो हो इसे क्षीण ही करूंगा, इस शरीर से हमें राग भी नहीं है जिसके कारण इसका पोषण करते रहें / क्योंकि मुनिराजों को शरीर से राग-द्वेष का अभाव है अतः जिससे मुनिराज का ध्यानाध्ययन सधे वह ही करते हैं। ___ इस ही कारण मुनि महाराज पवन, गर्मी, कोलाहल, शब्द एवं मनुष्यों आदि के गमन के स्थानों में प्रयत्न करके बैठते नहीं / वहां बसते हैं जहां ध्यानाध्ययन से परिणाम च्युत न हों / इसमें अन्तराय (विघ्न) पड़ने के जो भी कारण हों उन कारणों को दूर से ही त्यागते हैं / वे स्वयं ध्यान में बैठे हों तथा कोई ध्यान का अकारण (विघ्न डालने वाला कारण) आ प्राप्त हो तो ध्यान को छोड़कर उठ कर नहीं जाते हैं / शीतकाल में जल के किनारे ध्यान करते हैं अथवा ग्रीष्म काल में शिला के ऊपर अथवा पर्वत के शिखर पर ध्यान करते हैं अथवा वर्षाकाल में वृक्षों के नीचे ध्यान करते हैं वह अपने परिणामों की शुद्धता के अनुसार ही करते हैं / परिणाम अत्यन्त विरक्त हों तो ऐसे (उपरोक्त) स्थान पर जाकर ध्यान करते हैं, अन्यथा अन्य स्थान पर जहां मन (ध्यान में ) लगे वहां ध्यान धारण करते हैं / सन्मुख आए उपसर्ग को छोडकर नहीं जाते हैं।