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________________ 251 मोक्ष सुख का वर्णन श्रीगुरु के मुख से इसप्रकार के अमृतमय वचन सुनकर, शिष्य अपने स्वरूप का शीघ्र ही विचार करने लगता है। परम दयालु श्रीगुरु ने बारबार मुझे यही कहा तथा यह ही उपदेश दिया है अत: इसका क्या प्रयोजन है ? एक मेरा भला करना ही प्रयोजन भासित होता है, मुझे बार-बार यही कहा है / अत: देखू कि मैं सिद्धों के समान हूं अथवा नहीं हूं ? देखो, यह जीव मरण के समय इस शरीर से निकल दूसरी गति में जाता है, तब इस शरीर के अंगोपांग - हाथ, पांव, आंख, कान, नाक इत्यादि सर्व चिन्ह तो जैसे के तैसे यहां ही पडे रह जाते हैं पर चैतन्यपना नहीं रहता। इससे यह जाना गया कि जाननेवाला देखने वाला तो कोई अन्य ही था। देखो ! मरण के समय जब यह जीव अन्य गति को जाता है तब कुटुम्ब परिवार मिलकर इसे बहुत पकड-पकड कर रखना चाहते हैं, गहरे तहखाने में दृढता से दरवाजा बन्द करके भी रखें तब भी सारे कुटुम्ब को देखते-देखते दीवार अथवा घर फोड कर भी आत्मा निकल जाता है किसी को दिखता नहीं है, इससे यह जाना जाता है कि आत्मा अमूर्तिक है, यदि मूर्तिक होता तो शरीर की ही भांति पकड़ कर रखने पर रखा रह जाता / अत: आत्मा के प्रत्यक्ष रूप से अमूर्तिक होने में संदेह नहीं है / __यह आत्मा आंखों से पांच प्रकार के वर्णो को निर्मल देखता है। श्रोत्र इन्द्रिय के द्वारा तीन प्रकार के अथवा सात प्रकार के शब्दों की परीक्षा करता (को सुनता) है, नासिका इन्द्रिय के द्वारा दो प्रकार की सुगन्धदुर्गन्ध को जानता है / यह आत्मा रसना इन्द्रिय के द्वारा पांच प्रकार के रस का स्वाद लेता है तथा स्पर्श-इन्द्रिय के द्वारा आठ प्रकार के स्पर्श का वेदन करता है। अनुभव निरधार करता है, ऐसा जानपना ज्ञायक स्वभाव के अतिरिक्त इन्द्रियों में तो है नहीं / इन्द्रियां तो जड हैं, इनका आकार तो अनन्त पुदगल परमाणुओं से बना है / अतः जहां भी इन्द्रियों के द्वारा दर्शन-ज्ञानोपयोग होता है वह उपयोग तो मैं हूं, कोई अन्य नहीं है, भ्रम से ही अन्य भासित होता है।
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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