________________ 244 ज्ञानानन्द श्रावकाचार करूं ? यदि तू विचार कर देखे तो तू भी आत्मा है, मैं भी आत्मा हूं / स्त्री-पुरुष रूप तो पर्यायें हैं, वे पौद्गलिक हैं, उनसे कैसी प्रीति ? शरीर जड तथा आत्मा चैतन्य ऊंट-बैल का सा जोडा है, अत: यह संयोग कैसे बना रहेगा ? तेरी पर्याय को भी तू चंचल जान। अपने बारे में तू क्यों विचार नहीं करती ? हे पत्नी ! रात-दिन भोग किये उससे क्या सिद्धि हुई तथा अब क्या सिद्धि होने वाली है ? व्यर्थ ही भोग भोगकर आत्मा को संसार में डुबोया है / इस मरण समय को जाना नहीं। स्वयं के मरने के बाद तीन लोक की संपदा भी सब झूठी (व्यर्थ) है / अत: मेरी पर्याय के विषय में तुम्हें चिंता करना उचित नहीं है। ___ यदि तुम मेरी प्रिय हो तो मुझे धर्म का उपदेश क्यों नहीं देती ? यह तुम्हारा कार्य है / यदि तुम स्वार्थ ही की साथी हो तो तुम तुम्हारी जानो। मैं तुम्हारे डिगाने (विचलित करने) से क्या विचलित हो जाऊंगा? मैने तो तुम पर करुणा करके ही उपदेश दिया है, मानना है तो मानों, नहीं मानों तो तुम्हारी जो होनहार है वह होगा / मुझे तो अब कुछ मतलब नहीं है, अतः अब तुम मेरे पास से जाओ तथा अपने परिणामों को शान्त रखकर आकुलता से बचो। आकुलता ही संसार का बीज है / इसप्रकार स्त्री को __ कुटुम्बियों को संबोधन :- फिर अपने कुटुम्ब-परिवार को बुलाकर समझाता है - अहो ! परिवार जन, अब इस शरीर की आयु तुच्छ रही है। अब मेरा परलोक निकट है, अतः अब मैं आप लोगों से कहता हूं कि आप लोग अब मुझसे किसी प्रकार का राग न रखें / आपका और मेरा मिलाप अल्प समय का ही शेष रहा है, ज्यादा नहीं / जैसे धर्मशाला में राहगीर (यात्रि) एक-दो रात्रि के लिये ठहरें तथा फिर अलग होते चिन्तित हों, वह कौन सा सयानापन है ? इसप्रकार मुझे भी आप से क्षमाभाव है, आप सब आनन्दमय रहें ? अनुक्रम से सभी की यही हालत (स्थिति)