________________ समाधिमरण का स्वरूप 229 मैं इसका पडौसी हूँ अतः पडौसी की ही भांति देख रहा हूँ कि शरीर का आयुबल कैसे पूर्ण होता है तथा शरीर का कैसे नाश होता है ? उसे मैं दर्शक बना टकटकी लगाकर देख रहा हूँ तथा इसका चारित्र (स्वरूपस्वभाव) देखता हूँ / अनन्त पुद्गल परमाणुओं ने एकत्रित होकर इस पर्याय को उत्पन्न किया है, बनाया है / शरीर इनसे भिन्न कोई अन्य पदार्थ नहीं है / मेरा स्वरूप तो एक चैतन्य स्वभाव शाश्वत अविनाशी है तथा उसकी महिमा अद्भुत है, मैं किसको बताऊं ? देखो इस पुद्गल पर्याय का महात्म्य कि अनन्त परमाणुओं का एकसा परिणमन इतने दिनों तक रहा, यह बडा आश्चर्य है / अब ये पुदगल परमाणु भिन्न-भिन्न अन्य-अन्य स्वभाव रूप परिणमन करने लगें तो यह आश्चर्य नहीं है / ___ जैसे लाखों पुरुष एकत्रित होकर मेला नाम की पर्याय बनाते हैं, कुछ दीर्घकाल पर्यन्त वह मेला पर्याय रहती है तो उसका आश्चर्य होता है कि इतने दिनों लाखों मनुष्यों का परिणमन एक-सा (कैसे) रहा, इसका विचार कर देखने वाले पुरुष को आश्चर्य होता है / फिर वे मनुष्य भिन्न-भिन्न दसों दिशाओं में चले जाते हैं तब मेले का नाश होता है / इतने पुरुषों का भिन्न-भिन्न परिणमन होना तो स्वभाव ही है, इसमें आश्चर्य कैसा ? इसीप्रकार अब यह शरीर अन्य प्रकार परिणम रहा है तो अब यह स्थिर कैसे रहेगा ? अब इस शरीर पर्याय को रखने में कोई समर्थ नहीं है। वही कहते हैं - त्रिलोक में जितने भी पदार्थ हैं वे अपने-अपने स्वभाव रूप परिणमन करते हैं, कोई किसी अन्य को परिणमन नहीं कराता, कोई किसी का कर्ता नहीं है तथा कोई किसी का भोक्ता भी नहीं है / स्वयं आते हैं, स्वयं जाते हैं, स्वयं मिलते हैं, स्वयं बिछुडते हैं, स्वयं गलते हैं, स्वयं बनते हैं, अत: मैं इनका कर्ता, भोक्ता कैसे ? मेरे रखने की चेष्ठा से यह शरीर कैसे रहेगा तथा मेरे दूर करने से यह शरीर कैसे दूर होगा ? इसमें मेरा कोई कर्तव्य है ही नहीं, झूठ ही अपने को कर्त्ता मानता था, जिसके कारण मैं अनादि काल से खेद-खिन्न, आकुल होकर महा