________________ 200 ज्ञानानन्द श्रावकाचार उनके अतिशय से मोह ज्वर मिटा, कषाय की आताप मिटी, परिणाम शान्त हुये, काम पिशाच भागा, इन्द्रियों रूप मछलियां ज्ञान जाल में पकडी गयीं, पांच अव्रतों का विध्वंस हुआ तथा संयम भाव से मेरा आत्मा ठंडा हुआ है / सम्यग्दर्शन-ज्ञान रूप नेत्रों से साक्षात मोक्षमार्ग देखने में आया है / अब मैं धीरे अथवा शीघ्रता से मोक्ष-मार्ग में गमन करने लगा हूँ। मोह की सेना लुटती जा रही है, घातिया कर्मो का जोर मिटता जा रहा है, मेरी ज्ञान ज्योति प्रकट होती जा रही है / मेरे अमूर्तिक असंख्यात प्रदेशों पर से कर्म-रज झडती-गिरती-गलती जा रही है, जिससे मेरा स्वभाव, आत्मा उज्जवल होता जा रहा है / अब मैं चारित्र ग्रहण करके मोह कर्म का शीघ्र ही निपात करूंगा, मोह पर्वत को चूर करूंगा ऐसा मेरा परम उत्साह वर्तता है / केवलज्ञान लक्ष्मी को देखने की अत्यन्त अभिलाषा, (चाह) वर्त रही है / मेरा यह मनोरथ कब सिद्ध होगा ? तथा मेरा यह आत्मा (मैं) इस शरीर रूपी बंदीग्रह से छूटकर अनन्त चतुष्टय संयुक्त तीन लोक के अग्रभाग में सिद्ध भगवन्तों के कुटुम्ब में जा स्थित होगा तथा लोकालोक सम्बन्धी द्रव्य-गुण-पर्याय सहित समस्त द्रव्य पदार्थो का एक समय में अवलोकन करेगा, मेरी ऐसी दशा कब होगी ? मैं ऐसे परम ज्योति मय स्व-द्रव्य को देख लिया है अन्य किस को देखू ? ___समस्त ज्ञेय पदार्थ जड के पिंड हैं, उनसे मेरी क्या मित्रता, उनसे क्या प्रयोजन ? जैसे की संगति होती है वैसा ही फल लगता है। जड से एकत्व किया था सो उसने मुझे भी जड कर डाला / कहाँ तो मेरा केवलज्ञान स्वभाव और कहाँ एक अक्षर के अनन्तवें भाग ज्ञान तथा कहाँ नरक पर्याय के सागरों पर्यन्त आकुलता सहित दु:ख तथा कहाँ वीर्यान्तराय का नाश होने पर केवलज्ञान दशा में अनन्तवीर्य का पराक्रम, अनन्तानन्त को उठा लेने जैसी सामर्थ्य ? कुछ पर्यायों की शक्ति तो रुई के तार के अग्रभाग के असंख्यातवें भाग सूक्ष्म एकेन्द्रिय के शरीर रूप है जो इन्द्रिय गोचर भी नहीं तथा जो