________________ 190 ज्ञानानन्द श्रावकाचार प्रतिमाजी की विनय :- आगे और भी कथन करते हैं। मार्ग में जितने भी जिनमंदिर हों, उन सब के दर्शन किये बिना आगे नहीं जाना चाहिये। यदि बार-बार जिनमंदिर के निकट ही समागम करना (से जानाआना) पडता है तथा बार-बार दर्शन करना संभव न हो तो बाहर से नमस्कार करके ही आगे बढना चाहिये, नमस्कार किये बिना आगे नही जाना चाहिये। मंदिरजी में इधर-उधर गमन करते जितनी बार प्रतिमाजी दिखाई पडे उतनी बार दोनों हाथ जोड मस्तक से लगाकर नमस्कार करना चाहिये। यदि स्वयं सवारी पर आये हों तो जब से जिनमंदिर दिखाई देने लग जावे वहां से सवारी से उतरकर पैदल चलना चाहिये, ऐसा नहीं कि सवारी पर चढे-चढे ही मंदिर तक चले जावें। इसमें बहुत अविनय है, अविनय ही महापाप है तथा विनय ही धर्म है। देव, धर्म, गुरु के अविनय से बडा अथवा कुदेव आदि के विनय से बड़ा पाप तीन लोक में नहीं है न होगा। उसीप्रकार इससे उल्टा सच्चे देव, धर्म, गुरु के विनय से बडा तथा कुदेव आदि की अवहेलना-अवज्ञा से बडा धर्म तीन लोक में न हुआ न होगा / अत: देव, धर्म, गुरु के अविनय का विशेष भय रखना चाहिये, यदि उसमें भूल हुई तो कहीं ठिकाना नहीं है / बहुत क्या शिक्षा दें, एक करोड उपवास का फल जितना फल एक दिन जिनमंदिर के दर्शन का होता है / करोडों उपवास करने के बराबर फल एक दिन पूजन का होता है / अतः जो निकट भव्य हैं वे नित्य श्रीजी का दर्शन पूजन करें। ___ दर्शन किये बिना कदापि भोजन करना उचित नहीं / दर्शन किये बिना कोई मूढ, शठ, अज्ञानी भोजन करता है तो उसका मुख पाखाने (लैटरिन) के बराबर अथवा सर्प के बिल बराबर है / जिव्हा है वह सर्पिणी है, मुख है वह बिल है तथा यदि कुभेषी, कुलिंगी जिनमंदिर में रहते हों तो उस मंदिर में भूल कर भी नहीं जाना चाहिये। वहां जाने से श्रद्धा रूपी रत्न जाता रहता है। वहां जिनदेव आदि का विशेष अविनय