________________ 170 ज्ञानानन्द श्रावकाचार लगाने में छाती, पीठ और नितम्ब को छोडकर पांच ही अंग झुकते हैं, अत: इसे पंचांग नमस्कार कहते हैं / फिर (नमस्कार करने के बाद) खडे होकर तीन प्रदक्षिणा दे / एकएक प्रदक्षिणा में एक-एक दिशा में तीन आवृत्ति सहित शिरोनति करे / खडे होकर स्तुति पाठ पढ़ें तथा अष्टांग दंडवत प्रणाम करके पीछे-पीछे (उल्टे) पांव अपने घर को वापस हो / यदि निर्ग्रन्थ गुरु वहां बिराजे हों तो उन्हें नमोस्तु करके तथा उनके मुख से शास्त्र श्रवण किये बिना घर नहीं लौटना चाहिये। __भावार्थ :- जिन दर्शन करने में आठ तो अष्टांग नमस्कार, बारह शिरोनति तथा छत्तीस आवर्त किये जाते हैं। अब स्तुति करने का विधान कहते हैं : जैसे राजा आदि बडे पुरुषों के पास कोई दीन पुरुष अपने दुःखों की निर्वृत्ति के लिये जाता है तो उसके सम्मुख खडा होकर, सामने भेंट रख कर फिर वचनालाप करता है। पहले तो राजा आदि की प्रशंसा करता है फिर अपने दुःख की निवृत्ति की इच्छा रखता हुआ इसप्रकार कहता है कि मेरा दुःख दूर करने की कृपा करें / तब वे महरबान होकर उसका दुःख दूर करते हैं / इसीप्रकार यह संसारी प्राणी परम दु:खी दीन आत्मा मोह कर्म के द्वारा पीडित किया गया श्री जी के निकट जाकर उनके सम्मुख खडा होकर आगे भेंट रख कर पहले श्रीजी की महिमा का वर्णन करे, श्रीजी के गुणानुवाद गावे, फिर मोह कर्म ने उस स्वयं को अनादि काल से अत्यन्त भयंकर नरक निगोद आदि के दु:ख दिये उनका निर्णय (वर्णन) करे एवं उनकी निर्वृत्ति (उनसे छुडाने ) के लिये प्रार्थना करे / हे भगवान ! ये अष्ट कर्म मेरे साथ लगे हैं, मुझे महातीव्र वेदना उपजाते हैं, इनने मेरे स्वभाव का घात कर रखा है, उनके दिये दुःख की बात मैं कहां तक कहूं ? इसलिये अब इन दुष्टों का नाश कर मुझे निर्भय स्थान अर्थात मोक्ष दीजिये, जिससे मैं चिरकाल पर्यन्त सुखी होऊ / तब