________________ 166 ज्ञानानन्द श्रावकाचार इन्द्र, चक्रवर्ती, कामदेव आदि महन्त पुरुषों का शरीर पाता है / इसप्रकार बाह्य तपों का फल कहा।। ___ अभ्यन्तर तपों का फल :- उपरोक्त से अनन्त गुणा फल अभ्यन्तर छह प्रकार के तपों में जो प्रायश्चित तप है उसका है / बाह्य तपों से तो शरीर कृश होता है तथा शरीर के कृश होने पर मन कृश होता है, इस ही कारण इन्हें (बाह्य तपों को) भी तप कहा है / मन कृश न हो तो शरीर के कृश होने मात्र से तप नाम नहीं होता है। ___ धर्मात्मा पुरुष एक मन को कृश करने के लिये ही बाह्य तप करते हैं / अन्यमती शरीर को तो बहुत कृश करते हैं परन्तु मन अंश मात्र भी कृश नहीं होता, अत: उन्हें (अन्य मतियों को) अंश मात्र भी तप नहीं कहा गया है / अभ्यन्तर तपों से मन कृश होता है, मन के कृश होने से कषाय रूपी पर्वत गलता है / ज्यों-ज्यों कषाय की मंदता होती जाती है, वैसेवैसे ही परिणामों की विशुद्धता बढती है, उस ही का नाम धर्म है, वही मोक्ष का कारण है (मार्ग है)। वही कर्मो को जलाने के लिये ध्यानाग्नि है। संपूर्ण सर्व शास्त्रों का रहस्य मोह कर्म को मंद करने का अथवा नाश करने का है। ___जितने तप, संयम, ध्यान, स्वाध्याय, वैराग्य आदि अनेक कारण बताये हैं वे सब कारण सर्व सराग भावों को छुडाने के लिये हैं / जीव कर्मो से छूटता है तो एक वीतराग भाव से ही छूटता है / अतः सर्व प्रकार से तीन काल, तीन लोक में वीतराग भाव ही मोक्ष का मार्ग है / “सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्ष-मार्गः" ऐसा कहा है वह वीतराग भाव का ही कारण है, कारण में कार्य का उपचार करके ही ऐसा कहा गया है / कारण के बिना कार्य की सिद्धि नहीं होती, इसलिये कारण प्रधान है / यह बात प्रत्यक्ष अनुभव में आती है तथा आगम में स्थान-स्थान पर सारे सिद्धान्त में एक वीतराग भाव को ही सार तथा उपादेय कहा है।