________________ 160 ज्ञानानन्द श्रावकाचार मिले तो पाप उत्पन्न करे, कषाय न मिले तो पाप नहीं होता, अतः यह नियम निश्चित हआ कि वीतराग भाव ही धर्म है तथा वीतराग भाव का कारण रत्नत्रय धर्म है। रत्नत्रय धर्म के लिये अनेक कारण हैं / वीतराग भाव के मूल कारण के कारण उत्तरोत्तर सर्व कारणों को धर्म कहा जाने में कोई दोष नहीं है / अतः सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, वीतराग भाव हैं वे तो निज स्वभाव हैं तथा मोक्ष पर्यन्त सदैव शाश्वत साथ रहते हैं / इनसे उल्टे तीन भाव जीव के विभाव हैं, वे ही संसार मार्ग हैं, मोक्षमार्ग रूप नहीं हैं अत: सिद्धों में नहीं पाये जाते / सयोगकेवली तथा अयोगकेवली को चारित्र कहा गया है पर वह उपचार मात्र कहा गया है / चारित्र तो सावध योग के त्याग को कहते हैं जो वीतराग भाव के लिये कारण हैं तथा वीतराग भाव कार्य है / कार्य की सिद्धि हो जाने पर कारण रहता नहीं / ___ ज्ञानी की क्षयोपशम अवस्था अर्थात हेय-उपादेय का विचार बारहवें गुणस्थान तक ही है तथा वहां तक ही हेय-उपादेय का विचार संभव है। केवली कृत्यकृत्य हुये जो करना था वह कर चुके, सर्वज्ञ वीतराग हो गये, अनन्त चतुष्टय को प्राप्त हुये, उन्हें हेय-उपादेय का विचार क्यों हो ? अतः उन्हें सावध योग का त्याग निश्चय से संभव नहीं है / मोक्षमार्ग रूपी धर्म से ही जीव परम सुखी होता है / इसप्रकार अधर्म को छुडाकर धर्म के सन्मुख किया। (12) बोधि दुर्लभ भावना :- यह जीव सम्यग्ज्ञान को सुलभ मानता है, उसे दुर्लभ भावना का स्वरूप दिखाकर सम्यग्ज्ञान के सन्मुख किया। वही कहते हैं - प्रथम तो अनादि से सर्व जीवों का घर नित्यनिगोद है, उसमें से निकलना महादुर्लभ है / वहां से निकलने का कोई उपाय (इस जीव द्वारा किये जा सकने योग्य ) नहीं है / जिसका आत्मा वैचारिक शक्ति से हीन है, उस शक्ति हीन द्वारा निकलने का उपाय कैसे बन पावे ? उसका ज्ञान तो एक अक्षर के अनन्तवें भाग है तथा उसको