________________ 148 ज्ञानानन्द श्रावकाचार कहलाता है / मोक्ष द्रव्य-कर्म तथा भावकर्म से मुक्त होने को अथवा निर्बन्ध होने अथवा निवृत होने को कहते हैं / सिद्ध क्षेत्र में जाकर बैठ जाने (स्थित हो जाने ) को मोक्ष नहीं कहा जाता / जीव (आत्मा) कर्मों से रहित होने के बाद अपने ऊर्ध्वगमन स्वभाव के कारण वहां (मोक्ष स्थान में) जाकर स्थित हो जाता है / वहां से आगे धर्म द्रव्य का अभाव है तथा धर्म द्रव्य के निमित्त के बिना आगे गमन होना शक्य नहीं है, अत: वहां जाकर स्थित हो जाता है / उस क्षेत्र में तथा अन्य क्षेत्र में कोई अन्तर नहीं है / वह क्षेत्र ही यदि सुख का स्थान हो तो उस क्षेत्र में सर्व सिद्धों की अवगाहना में भी पांचों जाति के सूक्ष्म तथा बादर स्थावर अनन्त जीव वहां स्थित (मौजूद) है, जो महादुःखी, महाअज्ञानी, एक अक्षर के अनन्तवें भाग मात्र ज्ञान के धारक, तीव्र प्रचुर कर्म के उदय सहित सदैव तीनों काल वहां रहते हैं / अतः यह निश्चय करना कि सुख, ज्ञान, वीर्य आत्मा के निज स्वभाव हैं / सर्व कर्मो के उदय का अभाव होने पर आत्मा में शक्ति (अनन्तवीर्य) उत्पन्न होती है, यह भी जीव का ही स्वभाव है / इस भाव रूप जीव ही परिणमता है, द्रव्य नहीं परिणमता / द्रव्य तो जीव को निमित्त मात्र है / अत: जीव को, पर-द्रव्य का निमित्त पाकर जीव की (अपनी) शक्ति से, जो भाव उत्पन्न होते हैं उन्हें औपाधिक अथवा विभाव अथवा अशुद्ध अथवा विकल्प अथवा दु:ख रूप भाव कहा जाता है।