________________ विभिन्न दोषों का स्वरूप 145 (6) उत्तम-संयम :- पांच प्रकार के स्थावर तथा छठे त्रस जीवों की दया पालना, पांच इन्द्रियों एवं छठे मन को उनके विषयों में न जाने देना उत्तम संयम कहलाता है / (7) उत्तम-तप :- बारह प्रकार के तप अर्थात छह प्रकार के तो बाह्य तप-अनशन, अवमोदर्य, व्रतपरिसंख्यान, रस-परित्याग, विविक्तशैयासन, काय-कलेश एवं छह प्रकार के अन्तरंग तप - प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युतसर्ग तथा ध्यान - ये बारह प्रकार के तप करना वह उत्तम तप है / (8) उत्तम-त्याग :- चौबीस प्रकार के परिग्रह - दश प्रकार के तो बाह्य तथा चौदह प्रकार के अभ्यन्तर परिग्रह - के त्याग को उत्तम त्याग कहते हैं / (9) उत्तम-आकिंचन :- किंचित तिल-तुष मात्र भी परिग्रह से रहित नग्न स्वरूप को उत्तम आकिंचन्य कहते हैं / (10) उत्तमब्रह्मचर्य :- शील के पालन को उत्तम ब्रह्मचर्य कहते हैं / सम्यग्दर्शन सहित होने पर ही ये दशलक्षण उत्तम कहे जाते हैं अन्यथा नहीं तथा उत्तम होने पर ही ये धर्म के दशलक्षण होते हैं / इसप्रकार सामान्य रूप से दशलक्षण वाले धर्म का स्वरूप जानना / रत्नत्रय धर्म आगे रत्नत्रय धर्म का स्वरूप कहते हैं / “तत्त्वार्थसूत्र” नामक ग्रन्थ में ऐसा कहा है - “सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्ग:"। दर्शन श्रद्धान को कहा जाता है / यहां दर्शनोपयोग का नाम दर्शन नहीं है / दर्शन तथा ज्ञान के अनेक अर्थ होते हैं, जहां जैसा प्रयोजन हो वहां वैसा ही अर्थ ग्रहण करना चाहिये। दर्शन को यहां अनेक नामों से कहा जाता है - चाहे दर्शन कहो, चाहे प्रतीति कहो, चाहे श्रद्धान कहो, चाहे रुचि कहो, इत्यादि जानना / स्वयमेव ऐसा ही है, यही है, अन्यथा नहीं है, अन्य प्रकार नहीं है, इसप्रकार का श्रद्धान हो उसे तो सामान्य रूप से दर्शन का स्वरूप कहा जाता है तथा सराहने (प्रशंसा करने) योग्य कहो अथवा भले