________________ नमः सिद्धेभ्य ज्ञानानन्द श्रावकाचार मंगलाचरण दोहा राजत' के वलज्ञान जुत', परम औदारिक काय। निरख छवि भवि छकत' हैं,पी रस सहज सुभाय।। अरहंत हरिकै अरिन कों, पायो सहज निवास। ज्ञान ज्योति परगट भई, ज्ञेय किये परकास।। सकल सिद्ध वंदों सुविधि, समयसार अविकार। स्वच्छ सुछ द उद्योत नित, लह्यो ज्ञान विस्तार।। ज्ञान स्वच्छ जसु भाव में, लोकालोक समाय। ज्ञेयाकार न परन में, सहज ज्ञान रस पाय।। अंत आंचि' के पांचतें, शुद्ध भये शिवराय। अभेद रूप जो परनमें, सहजानन्द सुख पाय।। जिनमुख तें उत्पत्ति भईं, ज्ञानामृत रस धार। स्वच्छ प्रवाह बहे ललित, जग पवित्र करतार।। जिनमुख तें उत्पत्ति, सुरति सिन्धुमय सोई। मैं नमत अद्य हरनतै, सब कारज सिध होई।। निर्विकार निर्ग्रन्थ जे, ज्ञान ध्यान रसलीन। नासा अग्र जु दृष्टि धरि, करे कर्ममल छीन।। इह विधि मंगल करन तैं, सब विधि मंगल होत। . होत उदंगल' दूरि सब, तम ज्यौं भानु उद्योत।। 1. शोभायमान 2. युक्त सहित 3. तृप्त, 4. नष्टकर 5. शुद्धात्मा 6. परिणमन 7. आंच, अग्नि 8. पाक से (द्वारा) 9. विघ्न, बाधा, द्वन्द