________________ 138 ज्ञानानन्द श्रावकाचार अभिप्राय तो ऐसा है कि जिनदेव ने ऐसा ही देखा है, अत: मैं भी ऐसा ही धारण किये हूं तथा अन्यों को भी ऐसा ही आचरण कराता रहा हूं / मुझे मान-बडाई-लोभ-अहंकार का प्रयोजन नहीं है, पर ज्ञान की न्यूनता के कारण कुछ का कुछ भासित हो गया हो तो मैं क्या कर सकता हूं ? मुझसे लेकर गणधरदेव आदि तक में ज्ञान की न्यूनता पाई जाती है, इस ही कारण अंत के उभय (दो-दो) मनोयोग, वचनयोग बारहवें गुणस्थान तक कहे हैं / सत्यवचन योग केवली को कहा गया है, अत: मेरा भी दोष नहीं है / ज्ञान तो एक केवलज्ञान सूर्य ही सर्व प्रकाशक है, वही सर्वप्रकार सत्य है। __उसकी महिमा वचन अगोचर है। एक केवलज्ञान में ही गम्य है। केवली भगवान के अतिरिक्त अन्य कोई सम्पूर्ण सत्य को जानने में समर्थ नहीं है, अत: ऐसे केवली भगवान को मेरा बारम्बार नमस्कार हो। वे भगवान मुझे बालक जानकर क्षमा करें तथा मुझे शीघ्र ही केवलज्ञान की प्राप्ति हो, जिससे मुझे भी सर्व तत्त्वों को जानने की सिद्धि हो तथा उसी के अनुसार सुख की प्राप्ति हो / ___ज्ञान तथा सुख का जोडा है / जितना ज्ञान उतना सुख / मैं सर्वप्रकार निराकुल सुख को चाहने वाला हूं, सुख के बिना अन्य सब असार है / अत: वे जिनेन्द्रदेव मुझे शरण हों, जन्म-मरण से रहित करें, संसार समुद्र से पार करें, अपने समान करें, मुझपर तो शीघ्र दया करें / मैं संसार के दु:खों से अत्यन्त भयभीत हुआ हूं अतः सम्पूर्ण मोक्ष सुख प्रदान करें / बहुत क्या कहना ? वक्ता ऐसे भाव वाला हो (इति वक्ता का स्वरूप वर्णन / ) श्रोता के लक्षण __ आगे श्रोता के लक्षण कहते हैं :- श्रोता अनेक प्रकार के होते हैं, उनका दृष्टान्त द्वारा कथन करते हैं / (1) मिट्टी (2) चलनी (3) छेली (बकरी) (4) बिलाव (5) तोता (6) वक (7) पत्थर (8) सर्प (9) हंस (10) भैंसा (11) फूटा मटका (12) डंसमसकादिक (13) जोंक