________________ 135 विभिन्न दोषों का स्वरूप अन्तरंग की वासना कारण पाकर बाहर झलके बिना रहती नहीं है / इनके मन तथा इन्द्रियां काम से पीडित होती हैं / नाखून से लेकर सर तक सप्त कुधातुओं मयी मूर्तिवत हैं / भीतर तो हड्डियों का समूह है, उसके ऊपर मांस तथा खून भरा है। उसके ऊपर नसों से बंधी हैं तथा चमडा लिपटा है / उसके भी ऊपर केशों का समूह है / मुख में लटों के सदृश्य हड्डियों के दांत हैं तथा अभ्यन्तर वायु, पित्त, कफ, मल, मूत्र, वीर्य से भरी हैं / उदराग्नि एवं अनेक रोगों से ग्रसित हैं / जरा-मरण से भयभीत हैं / अनेक प्रकार की पराधीनता सहित है। स्त्रियों के इन स्थानों पर संमूर्छन जीव उत्पन्न होते हैं - कांख में, कुच में, नाभी के नीचे, योनी स्थान में एवं मल-मूत्र में असंख्यात जीव उत्पन्न होते हैं / नवों द्वारों में तथा सारे शरीर में त्रस तथा निगोद सदैव उत्पन्न हुआ करते हैं / बाह्य शरीर के मैल में अनेक लीखें अथवा जुंयें उत्पन्न होती हैं जिन्हें नित्य निकालती देखी जाती हैं तथा कुछ निर्दय पाप की मूर्तियां उन्हें मारती हैं, उनके हृदय दया से रहित हैं / देखो सराग परिणामों का महात्म्य ! निंद्य स्त्री को बडे-बडे महन्त पुरुष उन्हें उत्कृष्ट निधी जानकर सेवन करते हैं तथा अपने को कृतार्थ मानते हैं / उनका आलिंगन करके अपने जन्म को सफल मानते हैं। इसलिये आचार्य कहते हैं - मोह कर्म को धिक्कार हो, वेद कर्म को धिक्कार हो / ऐसी सदा मान से युक्त अत्यन्त कायर, शंका सहित स्वभाव वाली स्त्रियों को मोक्ष कैसे हो सकता है ? सोलहवें स्वर्ग तथा छठे नरक से आगे उनकी गति नहीं हैं / अन्तिम तीन संहनन के अतिरिक्त अन्य कोई संहनन उनको होता नहीं है, अन्त के तीन संहनन ही होते हैं / भोगभूमिया युगलिया के पुरुष तथा स्त्री, तिर्यंच अथवा मनुष्य के एक आदि का ही संहनन होता है। अतः पुरुषार्थ से रहित हैं। इस ही कारण उनको शुक्लध्यान की भी सिद्धि नहीं है तथा शुक्लध्यान के बिना मोक्ष होता