________________ 133 विभिन्न दोषों का स्वरूप धर्म-रत्न को छीनने में बडी लुटेरी है अथवा धर्म-रत्न को चुराने के लिये प्रवीण चोर है / नरक आदि नीच कुगति में ले जाने के लिये सहकारी है। स्वर्ग-मोक्ष का दरवाजा बन्द रखने के लिये अर्गल है / हाव-भावकटाक्ष से पुरुष के मन तथा नेत्रों को बांधने के लिये पाश है / ब्रह्मा, विष्णु, महेश, इन्द्र-धरणेन्द्र, चक्रवर्ती, सिंह, हस्ती आदि बडे योद्धाओं को क्रीडा मात्र में मोहन धूल डाल कर वश में कर लेती है / उसके मन में कुछ, वचन में कुछ तथा काया में कुछ अलग-अलग ही है / किसी को बुलावे, किसी को इशारा करे, किसी से प्रीति करे, किसी से प्रीति तोडे, क्षण में मिष्ट बोले, क्षण में गाली दे, क्षण में लुभाकर निकट आवे, क्षण में उदास होकर जाती रहे इत्यादि मायाचार रूप स्वभाव वाली है / काम की तीव्रता के वश इसका स्वयमेव ही ऐसा स्वभाव पाया जाता है / स्त्री में कंडे (उपले) की अग्नि के समान काम की दाह ज्वाला जानना / पुरुष के घास की अग्नि के सदृश्य काम की अग्नि जानना एवं नपुंसक के रुई की अग्नि के सदृश्य जानना / वे दान देने में कपिला दासी के समान कृपण होती हैं / सात स्थानों में मौन से रहित हैं। चिडिया के सदृश्य चिकचिकाहट आवाज किये बिना (अन्यों को ज्ञान में आये दिये बिना) बहुत दुश्चित है / इन्द्रायण के फल के सदृश्य रूप को धारण कर रक्खा है / (इन्द्रायण फल) बाहर से मनोहर, भीतर से विष के समान हानिकारक है, देखने में मनोहर पर खाने पर प्राण जावें ऐसा है। उसीप्रकार स्त्री बाहर से तो मनोहर दिखती है पर अन्दर से कडवी, प्राणों को हरने वाली है / दृष्टि विषसर्पिणी के सदृश्य है / शब्द सुनाकर विचक्षण शूरवीर पुरुषों तक को विह्वल करने के लिये अथवा काम ज्वर उपजाने के लिये कारण है / रजस्वला होते समय अथवा प्रसूति के समय चांडालिन के सदृश्य है / ऐसे अवगुण होते हुये भी मान के पहाड पर चढी औरों को तृण के समान मानती है /