________________ 120 ज्ञानानन्द श्रावकाचार समान खोटे तथा धर्म द्रोही जानकर अपनी सुरक्षा की तथा श्री वीतराग देव से प्रार्थना करने लगे- हे भगवान ! मैं तो आपके वचनों के अनुसार चलता हूं, इसलिये तेरा (तुम्हारा) पंथी हूं, आपके अतिरिक्त हम अन्य कुदेवादि की सेवा नहीं करते हैं। इनकी सेवा नरक आदि का कारण है तथा आप स्वर्ग मोक्ष के दाता हैं, अतएव आप ही देव हैं, आप ही गुरु हैं, आप ही धर्म हैं, अत: आपकी ही सेवा करता हं, अन्य का सेवन नहीं करता | आपको छोड आपके प्रतिपक्षी कुदेवादि की सेवा करते हैं, वे हरामखोर हैं, क्योंकि इसके समान और अधिक बडा पाप संसार में नहीं होता / सो वे हरामखोर नरकादि के दुःख पाते हैं। तेरापंथी तो तेरह प्रकार के चारित्र धारक ऐसे निर्ग्रन्थ गुरु को मानते हैं तथा अन्य परिग्रही गुरु को नहीं मानते हैं। अत: गुरु अपेक्षा भी तेरापंथी संभव है। विष्णु का सेवन करने वाले, तीव्र कषायी, जिनके अवलोकन करने से ही भय उत्पन्न होता है, मानों कि वे शीघ्र ही प्राणों का हरण कर लेंगे, ऐसे भय से वे क्रूर दृष्टि, स्त्री के रागी, मोह मदिरा के पान से उन्मत्त, इन्द्रियों के अत्यन्त लोलुपी ऐसे सर्व देवों को मानते हैं उन्हें सर्व पन्थी कहा जाता है, इसका ऐसा अर्थ जानना / परन्तु तेरापंथी तो अनादि-निधन जिन भाषित शास्त्रानुसार चले आये हैं। शेष जितने हैं, वे कुमत हैं / ऋषभनाथ तीर्थंकर से लेकर अब तक तेरापंथी धीरे-धीरे कम होते गए तथा अन्यमती बढते गये, जैसे दूध घना (बहुत) ही शुद्ध था, परन्तु मदिरा के बर्तन में जा पडने से वह दूध (काम में) लेने के अयोग्य हुआ, अत: भले सदस्य उसका कैसे सेवन कर सकते हैं? उसी तरह जो शुद्ध जैनी होकर कुगुरु, कुधर्म रूपी अयोग्य भाजन को अंगीकार करते हैं, उनको सत्पुरुष जैनी कैसे माने ? जैनी तो वही है जो जिनदेव के अतिरिक्त अन्य को नहीं मानते हैं, उनका लालन पालन नहीं करते हैं। जैसे शीलवंती स्त्री अपने कामदेव जैसे भर्तार को