________________ 118 ज्ञानानन्द श्रावकाचार पश्चात् ज्यों-ज्यों हीन काल आता गया त्यों-त्यों बुद्धि विशेष राग-भाव का अनुसरण करती गयी। उसके अनुसार वस्तुयें, वाहन आदि विशेष परिग्रह रखने लगे / मंत्र-तंत्र, ज्योतिष, वैद्यक करके मूर्ख गृहस्थों को वश में करने लगे / अपने विषय कषायों का पोषण करने लगे, उनमें भी कषायों के तीव्र वशीभूत हुये तथा अन्य-अन्य खरतरा (खतरगच्छ) आदि चौरासी मतों की स्थापना की। विशेष काल दोष से उनके मत में से ही एक शिष्य लडकर मारवाड देश में ढूंढया में जा बैठा, फिर ढूंढया मत चलाया तथा पैंतालीस शास्त्रों में से भी उसने बत्तीस शास्त्र ही रखे / उनमें प्रतिमाजी का तो स्थापन है तथा पूजा का फल विशेष लिखा है। ___ अकृत्रिम चैत्यालय एवं तीन लोक की असंख्यात प्रतिमाजी आदि की विशेष महिमा एवं वर्णन लिखा है / परन्तु हिन्दू, मुसलमान अथवा दिगम्बर एवं पूर्व श्वेताम्बरों से दोष पालने (विरुद्धता) के लिये प्रतिमाजी का एवं जिनमंदिरों का तथा जिनबिंब पूजा का उत्थापन (निषेध) किया है। काल दोष के कारण इस खोटे मत की वृद्धि खूब फैली / शुद्ध धर्म की प्रवृत्ति काफी चेष्टा पूर्वक भी चल नहीं पाती ऐसा प्रत्यक्ष देखा जाता है / इसप्रकार श्वेताम्बर मत की उत्पत्ति हुई / इसका विशेष जानना चाहें तो वे “भद्रबाहु चरित्र' नाम के ग्रन्थ से जान लें। दिगम्बर मुनियों में शिथिलाचार पश्चात् जो शेष दिगम्बर गुरु रहे, उनकी परिपाटी भी कुछ काल तक तो शुद्ध चली, फिर काल दोष के वश हो कोई-कोई भ्रष्ट होने लगे / वन आदि को छोडकर रात्रि के समय भय के मारे नगर के समीप आकर रहने लगे। फिर उनमें भी जो शुद्ध मुनिराज थे, उन्होने उनकी (भ्रष्टों की) निंदा की, हाय, हाय ! देखो काल का दोष कि मुनियों की वृत्ति तो सिंह के समान निर्भय होने पर उनने भी स्याल वृत्ति आदरी ( अपना ली) है / सिंह को वन में किसका डर है ? उसीप्रकार मुनियों को काहे का भय?