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________________ 106 ज्ञानानन्द श्रावकाचार जिस-तिस प्रकार विनय से ही रहना चाहिये / विनय गुण है वह (जिन) धर्म का मूल है, मूल के बिना धर्मरूपी वृक्ष के स्वर्ग-मोक्ष रूपी फल कदापि नहीं लगता / अतः हे भाई ! आलस्य छोड, प्रमाद तज खोटे उपदेश का वमन कर भगवान की आज्ञा रूप प्रवर्तन करना, बहुत कहने से क्या ? यह तो अपने हित की बात है, जिसमें अपना भला हो वह क्यों नहीं करना ? (अर्थात करना ही चाहिये)। देखो अरिहन्त देव का उपदेश तो ऐसा है कि इन चौरासी दोषों में से कोई एक दो दोष भी लगें तो महापाप होता है। मन्दिर निर्माण का स्वरूप तथा फल आगे चतुर्थ काल में जिन मंदिर बनवाये जाते थे तथा पंचम काल में बनवाये जाते हैं उनके स्वरूप का तथा फल का वर्णन करते हैं / चतुर्थ काल में बडे धनवानों को यह अभिलाषा होती थी कि मेरे पास धन बहुत है, इसे मैं धर्म कार्य के लिये खर्च करूं / ऐसे विचार कर वे धनवान धर्म बुद्धि, पाक्षिक श्रावक जैसी महन्त बुद्धि के धारक तथा अनेक शास्त्रों के पारगामी एवं बडे-बडे राजाओं द्वारा माननीय ऐसे जो गृहस्थाचार्य हों, उनके पास जाकर प्रर्थना करते थे - हे प्रभो! मेरा जिनमंदिर बनवाने का मनोरथ है, आपकी आज्ञा हो तो मेरा कार्य करूँ। तब वे धर्म बुद्धि गृहस्थाचार्य रात्रि में मंत्र की आराधना कर शयन करते थे तथा रात्रि में स्वप्न देखते थे। यदि भला शुभ स्वप्न आता था तो यह जान जाते कि यह कार्य निर्विघ्न समाप्त होगा अथवा अशुभ स्वप्न आने पर यह जानते हैं कि यह कार्य निर्विघ्न पूर्ण नहीं हो पावेगा। __पश्चात् पुन: उस गृहस्थ के आने पर वे यदि शुभ स्वप्न आया होता था तो कहते कि जो तुमने विचारा था, वह करो कार्य सिद्ध होगा तथा यदि अशुभ स्वप्न आया होता था तो यह कहते कि आप अपना धन तीर्थयात्रा आदि शुभ कार्यों में लगाने का संकल्प करें / तब वह गृहस्थ यह
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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