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________________ 72 गुणस्थान विवेचन दर्शनमोहनीय नामक द्रव्यकर्म का उदय नियम से निमित्तरूप रहता है अर्थात् जब जीव मिथ्यात्व परिणाम से परिणमित होता है, तब मिथ्यात्व कर्म का उदय निमित्तरूप रहता ही है; इसलिए मिथ्यात्वभाव को औदयिकभाव भी कहते हैं; लेकिन मिथ्यात्व कर्म जीव को मिथ्यादृष्टि बनाता है/कराता है - ऐसा नहीं है। कर्म का उदय तो निमित्त मात्र ही है, अपराध तो स्वयं जीव का ही है। ___ आचार्यश्री कुन्दकुन्द ने ‘समयसार शास्त्र की' गाथा 132 में जीव के अपराध का बोध कराते हुए स्पष्ट शब्दों में कहा है - “जीवों के जो तत्त्व का अज्ञान है (वस्तुस्वरूप से अयथार्थ अर्थात् विपरीत ज्ञान) वह अज्ञान का उदय है और जीव के जो तत्त्व का अश्रद्धान है; वह मिथ्यात्व का उदय है।" ___ जब जीव अपना अपराध देखेगा/जानेगा तो अपने अपराध को दूर करने का प्रयास करेगा। अतः जो आत्मा अपना दोष स्वीकार करता है; वही पुरुषार्थ कर सकता है/करता है। जो कर्मों का ही दोष जानता/मानता रहेगा, वह आत्मा स्वावलंबनरूप सम्यक् पुरुषार्थ कभी कर नहीं सकेगा। जो जीव, आत्मा में होनेवाले मोह-राग-द्वेषादि विकारी भावों की उत्पत्ति में कर्मों के उदय को निमित्तरूप से भी नहीं मानता, उसकी मान्यता के अनुसार विभाव ही जीव का स्वभाव हो जायेगा और जो यह मान लेता है कि कर्म ही विकार का कर्ता है, आत्मा नहीं, वे भी कर्मों के ही अधीन हो गये। ऐसे जीव सर्वज्ञ भगवान के उपदेश का यथार्थ स्वरूप न जानने के कारण ज्ञानी नहीं हैं। ___ अत: जीव स्वयं मिथ्यात्व तथा क्रोधादि विभाव भावों को करनेवाला अपराधी है। हाँ, उब जीव अपराध करता है, तब कर्म का उदय उसमें निमित होता है, यसत्य मान्यता है, यही उपादानमूलक कथन है। ___ शास्त्रों में जहाँ निमित्त की मुख्यता होती है, वहाँ मिथ्यात्व कर्म के उदय से मिथ्यात्व भाव होता है, ऐसा कथन जिनवाणी में मिलता है। प्रथमानुयोग आदि तीन अनुयोगों में उपादान की मुख्यता से किये गये कथन अति अल्प हैं और निमित्त की मुख्यता से किये गये कथन बहुत
SR No.032827
Book TitleGunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
PublisherPatashe Prakashan Samstha
Publication Year2015
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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