________________ परिशिष्ट -5 मिथ्यात्व दर्शनमोहनीय. कर्म मिथ्यात्व से रहित स्थान औपशमिक सम्यक्त्व क) सम्यक्त्व सन्मुख मिथ्यादृष्टि करणलब्धि प्राप्त जीव यहाँ आते ही मिथ्यात्व कर्म के रहितपने के कारण क्षायिक सम्यक्त्व के अधस्तन समान निर्मलभाव (स्थि / | रूप औपशमिक ति सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। का काल→ अनिवृत्तिकरणकालइस समय जीव) अपूर्वकरणकाल मिथ्यादृष्टि रहता है। अध:करणकाल औपशमिक सम्यक्त्व यह बड़ी रेखा मिथ्यात्व कर्म की है। बीच में पोल अर्थात् खाली जगह मिथ्यात्व कर्म के उदय से रहित दिखाई गई है। इस स्थान में भी पहले मिथ्यात्व कर्म की सत्ता थी। जबसे सम्यक्त्वसन्मुख मिथ्यादृष्टि करणलब्धि प्राप्त जीव अधःकरण, अपूर्वकरण परिणामों से आवश्यक कार्य करता है। पश्चात् अनिवृत्तिकरण परिणाम के कुछ काल व्यतीत होने के बाद मिथ्यात्व कर्म के कुछ निषेक प्रतिसमय दीर्घ काल के बाद उदय आने योग्य मिथ्यात्व के उपरितन स्थिति में जाते रहते हैं और कुछ निषेक अधस्तन स्थिति में जाकर मिल जाते हैं। यह क्रम अनिवृत्तिकरण के अन्तिम समय पर्यंत चलता रहता है। इतनी अवधि में/अंतर्मुहूर्त काल में मिथ्यात्व कर्म का उदय आते रहने से अधस्तन स्थिति के मिथ्यात्व कर्म, उदय में आकर निकल जाते हैं और जीव मिथ्यात्व कर्म से रहित स्थान में पहुँचता है। तथा वहाँ मिथ्यात्व कर्म का उदय नहीं होने से एवं श्रद्धा गुण की सम्यक्त्वरूप पर्याय प्रगट होने के कारण क्षायिक सम्यक्त्व के समान यथायोग्य एक अंतर्मुहूर्त काल पर्यंत औपशमिक सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। * सादि मिथ्यादृष्टि हो तो अनंतानुबंधी के 4 एवं दर्शनमोहनीय के 3- /