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________________ गुणस्थानों में विशेष 269 3. गुणस्थानों में मूलकर्मों का बंध - 1. ज्ञानावरण कर्म का बंध पहले गुणस्थान से दसवें गुणस्थान पर्यंत होता है। 2. दर्शनावरण का बंध पहले गुणस्थान से दसवें गुणस्थान पर्यंत होता है। 3. वेदनीय कर्म का बंध पहले गुणस्थान से तेरहवें गुणस्थान पर्यंत होता है। 4. दर्शनमोहनीय का बंध मात्र प्रथम गुणस्थान में होता है। * चारित्रमोहनीय का बंध प्रथम से नौवें गुणस्थानपर्यंत होता है। * दसवें गुणस्थान में सूक्ष्मलोभ कषाय के उदय से सूक्ष्मलोभ परिणाम तो होता है; तथापि चारित्रमोहनीय प्रकृति का बंध नहीं होता। 5. पहले गुणस्थान से सातवाँ स्वस्थान अप्रमत्त गुणस्थान पर्यंत आयुकर्म का बंध होता है। इतना विशेष है कि मिश्र गुणस्थान में किसी भी आयुकर्म का बंध नहीं होता। 6. नाम कर्म का बंध पहले गुणस्थान से दसवें गुणस्थान पर्यंत होता है। 7. गोत्र कर्म का बंध पहले गुणस्थान से दसवें गुणस्थान पर्यंत होता है। 8. अंतराय कर्म का बंध पहले गुणस्थान से दसवें गुणस्थान पर्यंत होता है। 4. गुणस्थानों में उदय - 1. तीर्थंकर प्रकृति का उदय तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में ही होता है। 2. आहारक शरीर और आहारक अंगोपांग का उदय छठवें गुणस्थान में ही होता है। 3. सम्यग्मिथ्यात्व का उदय तीसरे गुणस्थान में ही होता है। 4. सम्यक्प्रकृति का उदय चौथे से सातवें गुणस्थान पर्यंत ही होता है। 5. चौथे गुणस्थान में चारों आनुपूर्वी का उदय होता है। 6. अनादि मिथ्यादष्टि को पहला गुणस्थान मिथ्यात्व और चार अनन्तानुबंधी के उदय से होता है। सादि मिथ्यादृष्टि के लिए भजनीय है। 7. दूसरा गुणस्थान अनन्तानुबंधी के उदय से होता है। 8. तीसरा गुणस्थान सम्यग्मिथ्यात्व के उदय से होता है। 9. चौथा गुणस्थान सात कर्मों के अर्थात् दर्शनमोहनीय 3, चारित्रमोहनीय 4 प्रकृति के उपशम, क्षय या क्षयोपशम (एकसम्यग्प्रकृति के उदय) से होता है।
SR No.032827
Book TitleGunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
PublisherPatashe Prakashan Samstha
Publication Year2015
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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