SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 264
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 263 जीव ही बलवान है, कर्म नहीं न कोई नई अवस्था होती ही है / उस अवस्था का कर्ता द्रव्य की उत्पादरूप भाव शक्ति ही है, कर्म या अन्य द्रव्य नहीं। 9. जीवादि छहों द्रव्यों में द्रव्यत्व नाम का एक सामान्यगुण है। इस द्रव्यत्व गुण से ही प्रत्येक द्रव्य की अवस्थायें निरंतर बदलती रहती हैं। अतः जीव में कुछ विकाररूप व कुछ अविकाररूप अवस्थायें होती हैं, उनका कर्ता जीव का द्रव्यत्वगुण ही है, कर्म नहीं। 10. यदि कर्म स्वयं कर्ता होकर उद्यम से जीव के स्वभाव का घात करे, बाह्यसामग्री को मिलावे, तब तो कर्म के चेतनपना भी चाहिए और बलवानपना भी चाहिए, सो तो है नहीं, सहज ही निमित्त-नैमित्तिक संबंध है। - मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ : 25 11. अब, जो रागादिकभावों का निमित्त कर्म ही को मानकर अपने को रागादिक का अकर्ता मानते हैं, वे कर्त्ता तो आप हैं; परन्तु आपको निरुद्यमी होकर प्रमादी रहना है; इसलिए कर्म ही का दोष ठहराते हैं, सो यह दुःखदायक भ्रम है। - मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ : 195 12. तत्त्वनिर्णय करने में किसी कर्म का दोष है नहीं, तेरा ही दोष है; परन्तु तू स्वयं महंत रहना चाहता है और अपना दोष कर्मादिक को लगाता है, सो जिन आज्ञा माने तो ऐसी अनीति संभव नहीं है। तुझे विषयकषायरूप ही रहना है, इसलिये झूठ बोलता है। मोक्ष की सच्ची अभिलाषा हो तो ऐसी युक्ति किसलिये बनाये ? सांसारिक कार्यों में अपने पुरुषार्थ से सिद्धि न होती जाने; तथापि पुरुषार्थ से उद्यम किया करता है, यहाँ पुरुषार्थ खो बैठा; इसलिये जानते हैं कि मोक्ष को देखा-देखी उत्कृष्ट कहता है; उसका स्वरूप पहिचानकर उसे हितरूप नहीं जानता। हित जानकर उसका उद्यम बने, सो न करे यह असंभव है। - मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ : 311 13. करणानुयोग के शास्त्रों में अनंत सर्वज्ञ भगवंतों के ज्ञानानुसार आचार्यों ने यह सार्वकालिक तथा सार्वभौमिक नियम बताया है कि “प्रत्येक छह माह और आठ समय में छह सौ आठ जीव सिद्ध दशा को प्राप्त करते रहते हैं।” वे भी हमें जीव के ही स्वाधीन पुरुषार्थ को दर्शा रहे हैं।
SR No.032827
Book TitleGunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
PublisherPatashe Prakashan Samstha
Publication Year2015
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy