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________________ 257 गुणस्थानातीत : सिद्ध भगवान चारित्र में और विशेषता आना स्वाभाविक ही है। अब यहाँ सिद्धअवस्था में तो चार अघाति कर्मों का भी नाश हो गया है; इसलिए चारित्र की निर्मल परिणति में अति विशिष्टता आयी है। वास्तविक देखा जाय तो अघाति कर्म भी घाति कर्म जैसा ही काम करते हैं। 114. प्रश्न : अघाति कर्मों को आप घाति कर्म क्यों कहते हो ? उत्तर : भाईसाहब ! अनंत ज्ञानादि स्वभाव पर्यायों के व्यक्त होने पर भी वे कर्म सिद्ध अवस्था की प्राप्ति में साक्षात् बाधा डालने में निमित्त बन जाते हैं; इस अपेक्षा की मुख्यता से हमने अघाति को भी घाति कहा है। 115. प्रश्न : जैसे - यथाख्यात चारित्र में तेरहवें, चौदहवें गुणस्थानों में परिवर्तन/बदल होता है अर्थात् परम यथाख्यात चारित्र हो जाता है। वैसे ही क्या सुख में भी कुछ बदल होता है ? उत्तर : हाँ, सुख में भी अवश्य बदल होता है - जो सुख क्षीणकषाय गुणस्थान में मात्र पूर्ण हो गया है, वह सुख सयोग-अयोग गुणस्थान में केवलज्ञान की अपेक्षा अनंत सुख कहा गया है और अब इस सिद्धावस्था में वेदनीय कर्म के अभाव से वही अनंतसुख अव्याबाध अनंतसुख कहा जाने लगा। सुख तथा ज्ञान विषय का खुलासा चिविलास पेज क्रमांक 37 पर निम्न प्रकार दिया है - ज्ञान का सुख युगपत होता है और परिणामों का सुख समयमात्र का है अर्थात् समय-समय के परिणाम जब आते हैं, तब सुख व्यक्त होता है। भविष्यकाल के परिणाम ज्ञान में आए; परन्तु व्यक्त हुए नहीं। अतः परिणाम का सुख क्रमवर्ती है और वह तो प्रत्येक समय में नवीन-नवीन होता है। ज्ञानोपयोग युगपत् है, वह उपयोग अपनेअपने लक्षण सहित है। अतः परिणाम का सुख नवीन है और ज्ञान का सुख युगपत है। ११६.प्रश्न : केवलज्ञान होने पर भी सुख के अव्याबाध होने में क्या बाधा है ? उत्तर : वेदनीय कर्म की सत्ता और उसका उदय - ये ही सुख के अव्याबाध होने में बाधक निमित्त होते हैं।
SR No.032827
Book TitleGunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
PublisherPatashe Prakashan Samstha
Publication Year2015
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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