________________ 253 अयोगकेवली गुणस्थान 48. शंका - ज्ञेय की परतन्त्रता से परिवर्तन करनेवाले केवलज्ञान की फिर से उत्पत्ति क्यों नहीं मानी जाय ? समाधान - नहीं; क्योंकि केवल उपयोग-सामान्य की अपेक्षा केवलज्ञान की पुन: उत्पत्ति नहीं होती है। विशेष की अपेक्षा उसकी उत्पत्ति होते हए भी वह (उपयोग) इन्द्रिय, मन और आलोक से उत्पन्न नहीं होता है; क्योंकि जिसके ज्ञानावरणादि कर्म नष्ट हो गये हैं, ऐसे केवलज्ञान की इन्द्रियादिक से उत्पत्ति होने में विरोध आता है। दूसरी बात यह है कि केवलज्ञान असहाय है, इसलिये वह इन्द्रियादिकों की सहायता की अपेक्षा नहीं करता है, अन्यथा स्वरूप की हानि का प्रसंग आ जायगा। 49. शंका - यदि केवलज्ञान असहाय है तो वह प्रमेय को भी मत जाने ? समाधान - ऐसा नहीं है। क्योंकि पदार्थों को जानना उसका स्वभाव है और वस्तु के स्वभाव दूसरों के प्रश्नों के योग्य नहीं हुआ करते हैं। यदि स्वभाव में भी प्रश्न होने लगें तो फिर वस्तुओं की व्यवस्था ही नहीं बन सकेगी। 50. शंका - पांच प्रकार के भावों में से इस गुणस्थान में कौन सा भाव है ? समाधान - संपूर्ण घातिया कों के क्षीण हो जाने से और थोड़े ही समय में अघातिया कर्मों के नाश को प्राप्त होनेवाले होने से इस गुणस्थान में क्षायिक भाव है। ___ मोक्ष - भाई ! उत्तम सुख का भण्डार तो मोक्ष है। अत: मोक्षपुरुषार्थ ही सर्व पुरुषार्थों में श्रेष्ठ है। पुण्य का पुरुषार्थ भी इसकी अपेक्षा हीन है और संसार के विषयों की प्राप्ति हेतु जितने प्रयत्न हैं, वे तो एकदम पाप हैं, अत: वे सर्वथा त्याज्य हैं। साधक को मोक्षपुरुषार्थ के साथ अणुव्रतादि शुभरागरूप जो धर्मपुरुषार्थ है, वह असद्भूतव्यवहारनय से मोक्ष का साधन है। ___अत: श्रावक की भूमिका में वह भी व्यवहारनय के विषय में ग्रहण करनेयोग्य है। मोक्ष का पुरुषार्थ तो सर्वश्रेष्ठ है, परन्तु उसके अभाव में अर्थात् निचली साधक दशा में अणुव्रत-महाव्रतादिरूप धर्मपुरुषार्थ जरूर ग्रहण करना चाहिये। - श्रावकधर्मप्रकाश, पृष्ठ : 155