________________ 232 गुणस्थान विवेचन गुणस्थान का काल कुछ अधिक (चार क्षुद्रभव जितना) है; तथापि छठवें से बारहवें पर्यंत प्रत्येक गुणस्थान का काल भी अंतर्मुहूर्त ही रहता है। __ आश्चर्य तो इस बात का है कि छठवें गुणस्थान से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान पर्यंत श्रेणी के चारों गुणस्थानों के काल का योग भी मात्र एक अंतर्मुहूर्त काल ही होता है; क्योंकि अंतर्मुहूर्त के असंख्यात भेद हैं। गमनागमन अपेक्षा विचार - गमन - क्षीणमोहगुणस्थानवर्ती महामुनिराज ऊपर की ओर अकेले तेरहवें सयोगकेवली गुणस्थान में ही गमन करते हैं। आगमन - इस क्षीणमोह गुणस्थान में आगमन मात्र क्षपक सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान से ही होता है। विशेष अपेक्षा विचार - 1. यहाँ मात्र साता वेदनीय का ईर्यापथास्रव होता है; क्योंकि बारहवें गुणस्थानवर्ती महामुनिराज को किसी भी प्रकार का कोई भी कषायनोकषायरूप अर्थात् मोह कर्म का उदय तथा परिणाम नहीं रहा; वे सर्वथा वीतरागी हो गये हैं। यहाँ आस्रव का एक मात्र कारण योग का ही सद्भाव है। ____2. क्षपक अपूर्वकरण के प्रथम समय से ही चारित्र मोहनीयादि कर्मों की श्रेणी में पूर्व गुणस्थानों की अपेक्षा असंख्यातगुणी निर्जरा निरंतर उत्तरोत्तर बढ़ते हुए वीतराग परिणामों के निमित्त से वृद्धिंगत भी होती जा रही हैं। ____ बारहवें गुणस्थान के प्रथम समय से ही ज्ञानावरणादि तीनों घाति कर्मों का नया बंध होना भी सर्वथा रुक गया है। यहाँ बारहवें गुणस्थान के अंतिम समय में तीनों घातिकर्मों का सर्वथा नाश होते ही, उसी समय ज्ञान-दर्शन गुण की अल्पज्ञ अवस्था का व्यय और केवलज्ञान तथा केवलदर्शन पर्याय का उत्पाद एक ही समय में होता है। उसी समय अल्प वीर्य का व्यय होकर अनंत वीर्य का उत्पाद होता है। 3. औदारिक शरीरधारी छद्मस्थ जीवों के शरीर में निरंतर अनंत निगोदिया जीव विद्यमान रहते हैं। क्षीणमोही मुनिराज का शरीर भी