________________ 226 गुणस्थान विवेचन ज्ञानावरणादि तीन घाति कर्मों के उदय-निमित्तिक औदयिक अज्ञान का पर्याय में सद्भाव है, ज्ञान केवलज्ञानरूप से परिणमित नहीं हुआ है और उनके क्षयोपशम के अनुसार ज्ञान का आंशिक विकास हुआ है, यह बात तो सही है; तथापि ज्ञान की अल्पज्ञता दुःख में या सुख की पूर्णता में कुछ बाधक नहीं है। इसी विषय को और विशेष सुगमता में निम्नानुसार भी हम समझ सकते हैं। 1. पूर्ण सुख में जीव का मोहपरिणाम बाधक है, जिसमें मोहनीय कर्म का उदय तथा उदीरणा निमित्त है। बारहवें गुणस्थान में मोहकर्म तथा मोह परिणाम का सर्वथा अभाव होने के कारण यहाँ अनाकुल लक्षण क्षायिक अतीन्द्रिय सुख प्रगट हुआ है। 2. व्यवहारनय से अनंतसुख में बाधक अंतरंग कारण - ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतरायकर्म का उदय निमित्त है। ___जैसे ज्ञान के सम्यक्पने में सम्यग्दर्शन निमित्त है, वैसे ही सुख की अनंतता में अनंतज्ञान भी निमित्त है; तथापि सुख की पूर्णता में ज्ञानावरणादि कर्मों का कुछ भी साक्षात् बाधकपना नहीं है। 104. प्रश्न : फिर अल्पज्ञ अवस्था में विकसित बारह अंग का श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्यय ज्ञान अधिक सुख का उत्पादक कारण है या नहीं? उत्तर : अल्पज्ञ अवस्था में विकसित ज्ञान न सुख में कारण है न दुःख में; क्योंकि ज्ञान तो ज्ञानरूप है। ज्ञान से ज्ञान होता है, सुख-दुःख नहीं। ज्ञान और सुख गुण दोनों एक दूसरे से भिन्न हैं; उनका परिणमन भी भिन्न-भिन्न ही है। एक गुण अन्य गुण से रहित है - ऐसा तत्त्वार्थसूत्र में भी आचार्य उमास्वामी ने कहा है - द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः / (अध्याय 5 सूत्र 41) गुण द्रव्य के आश्रय से रहते हैं और एक गुण अन्य अनंत गुणों से रहित है। वस्तु का जैसा स्वरूप है, वैसा ही समझने से ज्ञान में निर्मलता तथा यथार्थता आती है। 105. प्रश्न : इसका अर्थ क्या सुखी होने के लिए ज्ञान का कुछ उपयोग ही नहीं है ?