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________________ अपूर्वकरण गुणस्थान 181 ____7. दर्शनमोहनीय कर्म के तीन भेदों में से मात्र मिथ्यात्व कर्म का ही बंध होता है; मिश्र और सम्यक्त्व प्रकृति - इन दोनों की सत्ता होती है और इनका उदय भी होता है; परन्तु नियम से बंध नहीं होता। . 8. मिथ्यात्व कर्म का क्षय स्वमुख से नहीं होता। मिथ्यात्व कर्म मिश्ररूप परिणमित होता है। मिश्र दर्शनमोहनीय कर्म सम्यक्प्रकृतिरूप से परिणमित होता है / तदनन्तर सम्यक्प्रकृति कर्म उदय में आकर स्वमुख से नष्ट होता है। इसी क्रम से मिथ्यात्व का नाश होता है। ___ 9. अनंतानुबंधी कषाय कर्म का भी स्वमुख से क्षय नहीं होता, उसका विसंयोजना द्वारा ही अभाव होता है। वास्तव में विचार किया जाय तो विसंयोजना का अर्थ सर्वसंक्रमण ही है; तथापि विसंयोजित अनंतानुबंधी कषाय चौकड़ी कदाचित् फिर से संयोजित भी हो सकती है, इसलिए उसे विसंयोजना कहा है। अन्य चारित्रमोहनीय प्रकृतियों में विसंयोजना नहीं होती। 10. आयुकर्म निरंतर बंधी है / भुज्यमान आयु कर्म (स्थितिबंध) के दो भाग व्यतीत हो जाने पर तीसरे भाग के प्रथम अंतर्मुहूर्त में (आयु 60 वर्ष की हो तो 40 वर्ष व्यतीत होने पर) प्रथम अपकर्ष काल होता है। उसमें नवीन आयु कर्म का बंध न हो तो शेष आयु के त्रिभाग में दूसरा अपकर्ष काल होता है, उसमें आयुकर्म का बंध हो सकता है। यदि उसमें भी न हो तो इसी प्रकार क्रम से आठ त्रिभाग में से किसी ना किसी एक अपकर्ष काल में आयुकर्म का बंध हो सकता है। यदि आठों अपकर्ष कालों में आयु का बंध न हो तो मरण के अंतर्मुहूर्त पूर्व आयुकर्म का बंध अवश्य होता ही है। यह व्यवस्था कर्मभूमियाँ मनुष्य और तिर्यंच जीवों की हैं। देव और नारकियों में आयु के अंतिम छह मास में आठ अपकर्ष काल का नियम है। अथवा जिसे प्रथम अपकर्ष में या द्वितीयादि अपकर्ष काल में आयुबंध होगा तो शेष अपकर्षकालों में उसी-उसी का बंध हो सकेगा, होता ही है; ऐसा नियम नहीं। ___ भोगभूमि के जीवों को आयु के अंतिम नव मास शेष रहे, तब आठ अपकर्षों में आयु के बंध का नियम है / (सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाग-२ पूर्वार्द्ध पृ. 19)
SR No.032827
Book TitleGunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
PublisherPatashe Prakashan Samstha
Publication Year2015
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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