________________ 163 अप्रमत्तविरत गुणस्थान संजलणणोकसायाणुदओ, मंदो जदा तदा होदि। अपमत्तगुणो तेण य, अपमत्तो संजदो होदि। संज्वलन कषाय तथा नौ नोकषायों के मंद उदय के समय में अर्थात् निमित्त से प्रमादरहित होनेवाली वीतरागदशा को अप्रमत्तसंयत गुणस्थान कहते है। ___ यहाँ ध्यानावस्था है, शुद्धोपयोग है; इसलिए व्यवहार सकलसंयम पालने का शुभविकल्प नहीं होता। मुनिराज बुद्धिपूर्वक तो निज शुद्धात्मा में मग्न हैं। इस कारण ध्यानजन्य आत्मानंद का रसपान करते रहते हैं। ___ अप्रमत्तविरत गुणस्थान में संज्वलन देशघाति कषाय कर्म और हास्यादि यथासंभव नोकषाय कर्मों का मंद उदय है; जो मुनिराज को प्रमादभाव उत्पन्न करने में समर्थ नहीं है; परन्तु आत्मा में अबुद्धिपूर्वक विभाव परिणाम का अस्तित्त्व बना रहता है। इन परिणामों के निमित्त से हीन स्थिति-अनुभाग वाला नया कर्मबंध भी नियम से होता ही है। संज्वलनजन्य मंद विभाव परिणाम और तीन कषाय चौकड़ी के अनुदयपूर्वक उत्पन्न वीतराग परिणाम - इन दोनों की मिश्र दशा को अप्रमत्तसंयत गुणस्थान कहते हैं। ___ वीतरागता व राग-द्वेष दोनों चारित्र गुण की पर्यायें हैं / मोह व योग के निमित्त से आत्मा के श्रद्धा व चारित्र गुणों में होनेवाली तारतम्यरूप अवस्थाओं को गुणस्थान कहते हैं / मात्र वीतराग परिणामों को अप्रमत्त गुणस्थान नहीं कहा / सप्तम गुणस्थान में स्थित मुनिराज मात्र वीतराग परिणामों के धारक नहीं हैं। उन्हें कषाय-नोकषाय कर्मों के मंद उदय के निमित्त से अबुद्धिपूर्वक मंद राग-द्वेष परिणाम भी धारावाहीरूप से चलते ही रहते हैं। ___ मुनिराज राग-द्वेष परिणामों का बुद्धिपूर्वक अनुभव भले न करते हों - त्रिकाली निज शुद्धात्मा का ही अनुभव करते हों; लेकिन साधक अवस्था होने के कारण आत्मपरिणामों में विभाव भावों का सद्भाव है और उनके निमित्तभूत कर्मों की सत्ता और उदय भी है। संज्वलन कषाय-नोकषायों के मंद परिणामों के निमित्त से यथायोग्य नया कर्मबंध भी होता है।