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________________ 157 प्रमत्तविरत गुणस्थान उत्तर : अट्ठाईस मूलगुणों के पालनरूप बाह्य व्यवहारधर्म तो सर्व मुनिराजों (आचार्य, उपाध्याय, साधु) का समान ही होता है। अंतरंग में निश्चयधर्मरूप तीन कषाय चौकड़ी के अनुदय से व्यक्त वीतरागता भी सामान्य अपेक्षा से समान ही होती है। (विशेष स्पष्टीकरण पंचाध्यायी अध्याय दूसरा श्लोक 639 से 643 देखें।) ___ सूक्ष्म परिणामों की अपेक्षा से विचार किया जाय तो वीतरागता हीनाधिक भी होती है; क्योंकि इसका निमित्त कारण संज्वलन कषाय चौकड़ी तथा नोकषाय कर्मों का तीव्र अथवा मंद उदय है। इस कारण अनेक वर्षों से दीक्षित मुनिराज की वीतरागता विशेष अधिक हो सकती है। इस विवक्षा की मुख्यता से अनेक वर्षों से दीक्षित मुनिराजों को चरणानुयोग बड़ा मानता है। यह कथन भी सापेक्ष ही समझना चाहिए; क्योंकि अल्पकाल के दीक्षित मुनिराज भी निजशुद्धात्मा के ध्यानरूप विशेष पुरुषार्थ से पुराने मुनिराज से भी अधिक वीतरागता को प्रगट कर सकते हैं। ___ यह सब कार्य परिणामों की विचित्रता और पुरुषार्थ की विशेषता से होते हैं। यही कारण है कि तीर्थंकर बननेवाले आदिनाथ मुनिराज एक हजार वर्ष मुनि दशा में साधना करने के बाद अरहंत भगवान हो सके। बाहुबली मुनिराज को केवलज्ञान की प्राप्ति के लिए एक ही वर्ष पर्याप्त रहा। श्री मल्लिनाथ मुनिराज के लिए अरहंत अवस्था की प्राप्ति मात्र छह दिन की साधना से ही हो गई थी। और भरत मुनिराज ने तो केवल अंतर्मुहूर्त की साधना से ही केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया था। (1) आचार्य, उपाध्याय तथा साधु - सामान्य दृष्टि से इन तीनों परमेष्ठियों की वीतरागता समान होने पर भी गणधरादि पद पर आसीन साधु परमेष्ठी की शुद्धि विशिष्ट होती है। (2) जिन मुनिराजों को परिहारविशुद्धि आदि ऋद्धियाँ प्राप्त हुई हैं उनकी तथा अनंतानुबंधी कषाय की विसंयोजना करनेवाले साधुओं की शुद्धि/वीतरागता विशेष होती है; फिर भी होती तो भूमिका के अंदर ही।
SR No.032827
Book TitleGunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
PublisherPatashe Prakashan Samstha
Publication Year2015
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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