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________________ देशविरत गुणस्थान 137 चाहिए; लेकिन असंख्यात नारकी सम्यक्त्व की प्राप्ति करते हैं। नव ग्रैवेयक पर्यंत के स्वर्ग के सब देवों को बाह्य अनुकूलता के कारण सम्यग्दर्शन होना ही चाहिए, ऐसा नियम नहीं बन सकता; क्योंकि अनेक देव मिथ्यादृष्टि पाये जाते हैं। __उपसर्ग या परिषह में जकड़े हुए साधु की साधुता नष्ट होनी चाहिए और उनको उपसर्ग तथा परिषहजयी बनकर केवली होने का अवसर भी नहीं मिलना चाहिए; तथापि अनेक मुनिराज उपसर्ग तथा परिषहजयी होकर अंतरोन्मुख पुरुषार्थ करते हुए केवली होते हैं और अपनी अतीन्द्रिय अनन्तसुखरूप पर्याय को प्रति समय प्रगट कर ही रहे हैं। धर्म की क्रिया तो आत्मा की अपनी स्वाधीन और स्वतंत्र क्रिया है, उसका बाह्य अन्य द्रव्यों की क्रिया से कुछ भी संबंध नहीं है। 3. यहाँ संयम शब्द आदि दीपक है; क्योंकि इस संयमासमय गुणस्थान से लेकर उपरिम सभी गुणस्थानों में संयम नियम से पाया ही जाता है / संयम + असंयम इन दो शब्दों की संधि से संयमासंयम यह एक शब्द बना है। ___4. असंयम शब्द को अन्त्य दीपक समझना चाहिए; क्योंकि पंचम गुणस्थान से लेकर आगे के गुणस्थानों में असंयम होता ही नहीं। इसे समझने के लिए प्रथम चार गुणस्थानों के साथ असंयम शब्द जोड़कर समझना उपयोगी हो जाता है। जैसे- मिथ्यात्व असंयम, सासादनसम्यक्त्व असंयम, मिश्र असंयम आदि। धवला पुस्तक 1 का अंश (पृष्ठ 174 से 176) "सामान्य से संयतासंयत जीव हैं / / 13 / / जो संयत होते हुए भी असंयत होते हैं, उन्हें संयतासंयत कहते हैं। 10. शंका - जो संयत होता है वह असंयत नहीं हो सकता है और जो असंयत होता है वह संयत नहीं हो सकता है; क्योंकि संयमभाव और असंयमभाव का परस्पर विरोध है / इसलिये यह गुणस्थान नहीं बनता है। समाधान - विरोध दो प्रकार का है, परस्परपरिहारलक्षण विरोध और सहानवस्था लक्षण विरोध। इनमें से एक द्रव्य के अनन्त गुणों में
SR No.032827
Book TitleGunsthan Vivechan Dhavla Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Ratanchandra Bharilla
PublisherPatashe Prakashan Samstha
Publication Year2015
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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