________________ सम्यग्मिथ्यात्व (मिश्र) गुणस्थान 105 के पाठ का प्रारम्भ करनेवालों के परिज्ञान कराने के लिये ही कहा है। वास्तव में तो सम्यग्मिथ्यात्व कर्म निरन्वयरूप से आप्त, आगम और पदार्थ-विषयक श्रद्धा के नाश करने के प्रति असमर्थ हैं; किन्तु उसके उदय से सत्-समीचीन और असत्-असमीचीन पदार्थ को युगपत विषय करनेवाली श्रद्धा उत्पन्न होती है; इसलिये सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान क्षायोपशमिक कहा जाता है। ___ यदि इस गुणस्थान में सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से सत् और असत् पदार्थ को विषय करनेवाली मिश्र रुचिरूप क्षयोपशमता : मानी जावे तो उपशमसम्यग्दृष्टि के सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त होने पर उस सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान में क्षयोपशमपना नहीं बन सकता है; क्योंकि उपशम सम्यक्त्व से तृतीय गुणस्थान में आये हुए जीव के ऐसी अवस्था में सम्यक्प्रकृति, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी इन तीनों का उदयाभावी क्षय नहीं पाया जाता है। 7. शंका - उपशम सम्यक्त्व से आये हुए जीव के तृतीय गुणस्थान में सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी इन तीनों का उदयाभावरूप उपशम तो पाया जाता है ? समाधान - नहीं; क्योंकि इसतरह तो तीसरे गुणस्थान में औपशमिक भाव मानना पड़ेगा। 8. शंका - तो तीसरे गुणस्थान में औपशमिक भाव ही रहा आवे ? समाधान - नहीं; क्योंकि तीसरे गुणस्थान में औपशमिक भाव का प्रतिपादन करनेवाला कोई आर्षवाक्य नहीं है। अर्थात् आगम में तीसरे गुणस्थान में औपशमिक भाव नहीं बताया है। दूसरे, यदि तीसरे गुणस्थान में मिथ्यात्व आदि कर्मों के क्षयोपशम से क्षयोपशम भाव की उत्पत्ति मान ली जावे तो मिथ्यात्व गुणस्थान को भी क्षायोपशमिक मानना पड़ेगा; क्योंकि सादि मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा मिथ्यात्व