________________ शिलालेख-७५ चतुरस्त्र [पट्टज] नघा[ड्ड] निकं, शुभशुक्तिकरोटकयुक्तमिदम् / बहुभाजनराजि जिनायतनं, प्रविराजति भोजनधामसमम् // 35 // यह श्लोक इस प्रकार हो सकता है'चतुरस्रमण्डपमधारनिकं, . शुभशुक्तिकरोटकयुक्तमिदम् / बहुभाजनराजि जिनायतनं, प्रविराजति भोजनधामसमम् // 3 // चतुरस्र (समचौरस-वर्गाकार) मण्डप वाला, प्राकार (दीवार) से रहित (अर्थात् खम्भों वाला) मांगलिक सीपियों के पात्रों से युक्त, बहुत से पात्रों से समृद्ध यह जिनमन्दिर भोजनशाला के समान शोभित होता है / / 35 / / विदग्धनृपकारिते जिनगृहेऽतिजीर्णे पुनः, समं कृतसमुद्ध ताविह भवांबुधिरात्मनः / अतिष्ठिपत् सोऽप्यथ प्रथमतीर्थनाथाकृति, स्वकीतिमिव मूर्ततामुपगतां सितांशुध तिम् // 36 // विदग्धराजा द्वारा बनवाए गए जिनमन्दिर के प्रति जीर्ण होने पर संसार-समुद्र से अपनी आत्मा का उद्धार करने के 1. भरत के नाट्यशास्त्र में चतुरस्र रङ्गमण्डप का वर्णन है / यह मण्डप 32-32 क्यूबिट्स का होता है एवं खम्भों पर अाधारित होता है।