________________ आइए, मन्दिर चलें-५६ दिये गए एवं इनको यहाँ जड़ दिया गया। बाईं तरफ सिन्दूर से लिपटी हुई जो खण्डित प्रतिमा है, यह रेवती दोष के अधिष्ठायक देवता की प्रतिमा है जिसे बलिभद्राचार्य ने स्थापित किया था। यह पबासन है जिस पर 1053 विक्रमी का लेख है। इस पबासन में दोनों तरफ सिंह, बीच में हाथियों के मुख एवं केन्द्र में अधिष्ठायिका देवी को प्रतिमा है। यही पबासन हमें यह बताता है कि 1053 वि. में जिस मूर्ति की स्थापना की गई वह ऋषभदेव भगवान की थी पर सिंह का लांछन यह बताता है कि मन्दिर तो महावीर भगवान का ही था। ऋषभदेव भगवान का लांछन तो वृषभ है जो इस पबासन में कहीं भी दिखाई नहीं देता। पालथी मारे एक टूटी हुई प्रतिमा है जिसके नीचे सिंह का लांछन है; यह प्रतिमा महावीर भगवान की है और यह पाला उन दो पालों में से एक है जिन्हें सं. 1294 में पूर्णचन्द्रजी उपाध्याय ने स्थापित करवाया था। इसमें गणेश यक्ष की प्रतिमा प्रतिष्ठित है। इस कमरे में दो शिलालेख भी दीवार में गड़े हुए हैं। मन्दिर में स्थान-स्थान पर पूराने अवशेष जड़वा दिये गये हैं ताकि नवीनता के बीच भी मन्दिर की प्राचीनता दिखाई दे। आइए, आपको तहखाना भी दिखा दूं। इस तहखाने के लिए प्रारस का सारा पत्थर शंखेश्वर पार्श्वनाथ को पेढी से पाया है। यह सामने जो पाटल (गुलाबी) वर्ण की प्रतिमा दिखाई दे रही है यह महावीर भगवान की है। यह पत्थर ही गुलाबी रङ्ग का है। इस प्रतिमा की प्रतिष्ठा भी प्राचार्य विजयवल्लभसूरिजी ने की थी। - हाँ, एक बात तो बताना भूल ही गया। रङ्गमण्डप के गुम्बज में जो कारीगरी है वह बहुत सुन्दर है। जरा, उसका