________________ हस्तिकुण्डी का इतिहास-१४ बताती हैं कि 1053 वि. में धवल राठौड़ ने जो बहुत बढ़िया जीर्णोद्धार करवाया उससे मन्दिर सुन्दर बन गया और उस समय की प्रशस्ति लिखने वाले सूर्याचार्य ने पुनः प्रतिष्ठा के पहले के मंदिर को अतिजीर्ण कह दिया क्योंकि मंदिर तो पुराना था ही। ___ विदग्धराज द्वारा प्रतिष्ठित मूति ऋषभदेव भगवान की ही थी / 360 वि. के बाद विदग्धराज ने पहली बार मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था एवं महावीर की पुरानो मूर्ति के स्थान पर ऋषभदेव की मूर्ति की स्थापना की थी। इस लम्बे अन्तराल के बाद मूलनायक को मूर्ति परिवर्तित करने का कोई प्रबल कारण रहा होगा। 1053 वि. में धवल राठौड़ ने शिलालेख के नीचे मूलनायक का पुनः नाम लिखा। उन्होंने विदग्धराज की, मंदिर के लिए दी गई एवं उनके पुत्र मम्मट द्वारा समर्थित राजाज्ञा को कायम रखने के लिए पुनः दुहराया, तो यह स्पष्ट हुआ कि यह मन्दिर पूर्व में महावीर भगवान का ही था। वि. सं. 666 के शिलालेख के अनुसार ऐतिहासिक राससंग्रह भाग दो (विजयधर्मसूरिजी विरचित) में इसे महावीर भगवान का चैत्य कहा गया है। इसका तात्पर्य यह हो सकता है कि 360 वि. में प्रतिष्ठित मूलनायक महावीर भगवान ही थे / प्रथम श्लोक में केवल जिनेन्द्रवरशासनं जयति ही लिखा गया है। फिर उसमें राठौड़ राजाओं की वंशावली दी गई है एवं यह संकेत दिया गया है कि श्री बलभद्राचार्य गुरु के लिए विदग्धराज ने जो जनमनोहर चैत्य गृह हस्तिकुण्डो में बनाया है उसके संभरण की जो व्यवस्था को है उसे मैं मम्मट अनुमोदित करता हूँ।