________________ ज्ञानसार का जैसे-जैसे पठन-पाठन करते जाते हैं, संसार के पदार्थों में आसक्त चेतना कुछ समय के लिये तो अध्यात्म के गहरे सागर में डूबने लगती है। पू. उपाध्यायजी म. गंभीर और तार्किक विद्वान होते हुए भी आत्मसमर्पित संत थे और इसी कारण उनके छोटे-छोटे श्लोकों में भी आत्मा को गहरी और मार्मिक चोट करने वाली साधना पूर्ण चर्चा है। ज्ञानसार में 32 अष्टक हैं। आठ-आठ गाथा प्रत्येक में होने के कारण इन्हें अष्टक के रूप से संबोधित किया गया है। इन प्रत्येक अष्टकों में भिन्न-भिन्न विषय हैं। प्रथम अष्टक में वास्तविक और काल्पनिक पूर्णता का विवेचन है। उपाध्याय जी स्पष्ट रूप से घोषणा करते हैं कि भौतिक पदार्थों से प्राप्त पूर्णता काल्पनिक पूर्णता है क्योंकि वह आरोपित है। यह आरोपित पूर्णता कभी भी विनष्ट हो सकती है। जबकि आत्मज्ञान की प्राप्ति एवं आत्मगुणों का विस्तार ही वास्तविक पूर्णता है। इसकी पुष्टि में उन्होंने विभिन्न तर्क भी प्रस्तुत किये हैं। द्वितीय मग्नताष्टक है। मग्न आत्मा को आभ्यंतर आत्मा के रूप में भी जान सकते है। इस आत्म-मग्न स्थिति में आत्मा का कर्ता एवं भोक्ता भाव समाप्त हो जाता है और उसके स्थान पर उसमें ज्ञाता और द्रष्टा भाव विकसित हो जाता है। जब तक हमारी चेतना में पर-द्रव्य के प्रति कर्ता और भोक्ता भाव है तभी तक कषायों की उत्पत्ति है और कषायों की उत्पत्ति ही कर्मबंधन का कारण बनती है। एक प्रकार से इस अष्टक द्वारा आत्मा का साक्षी भाव एवं साक्षी भाव से उत्पन्न आनंद की स्थिति का विवेचन किया तृतीय स्थिरता का अष्टक है। साक्षी भावों की उत्पत्ति आत्म-स्थिरता में ही उत्पन्न होती है। आत्मा स्वयं अखंड और अक्षय आनंद का स्वामी है। पर मोहजनक चंचलता के कारण ही क्षणिक सुखों को प्राप्त करने के लिये अपने अंतर में छिपे आत्मानंद को विस्मृत कर बैठा है। साधना मार्ग की गंभीरता, स्थिरता के अभाव में संभव नहीं है। मन, वचन और काया की स्थिरता अध्यात्म की प्रारंभिक पर महत्वपूर्ण शर्त है। जीवन की अस्थिरता रूप कालिमा के समक्ष स्थिरता निष्कलंक प्रकाशपुंज है।