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________________ प्रशस्ति ज्ञानसार जो आत्मसार है बड़ा अनूठा अमृत फल। उपाध्यायजी ने विरचा विरति प्रेरक यह ग्रन्थ प्रबल॥ तपगच्छ गगने दिनकर सम अध्यात्म क्षेत्र में चमक रहे / यशोविजयजी पूज्यप्रवर दल सहसकमलवत् महक रहे / / 1 / / विक्रम दोय सहस अडतालीस ज्ञान पंचमी शुभ पल में। अष्टक पद्यों में कृत अनुदित मोद मना मन मंगल में / पूना नगरे चौमासा मुनि मुक्तिप्रभ की प्रेरणया। हिन्दी में मणिप्रभसागर गणि ने कीना अनुवाद नया / / 2 / / नभ में रवि त्यों जिन शासन में चमके खरतरगण उज्ज्वल। सूरि जिनेश्वर अभयदेव महिमा छाई नभ से भूतल // दादा दत्त चन्द्र मणिधारी कुशल चन्द्र जग उपकारी। सुखसागर जिन हरि श्रीमज्जिन कान्ति सूरि शुद्धाचारी // 3 // उपाध्याय श्री यशोविजय जी ने विरचा यह ग्रन्थ भला। कान्ति शिष्य मणि ने हिन्दी में लिखी कृति सुन्दर सुफला। अमरदीप है जिन शासन में खरतरगच्छ की व्यापकता। गुरु गण के गुण मैं क्या गाऊं सुरगुरु भी नहिं गा सकता॥4॥ {258}
SR No.032769
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhsagar, Rita Kuhad, Surendra Bothra
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1995
Total Pages286
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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