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________________ 21 वर्तमान में प्रचलित जैन दार्शनिक परम्परा को उसके विकास क्रम के अनुसार चार युगों में बांटा जा सकता है। भगवान महावीर से आरंभ हुई यह परम्परा आचार्य भद्रबाहु के समय में संयोजित, संगठित व व्यवस्थित हुई। लगभग एक हजार वर्ष तक आगम और उन पर आधारित साहित्य का बोलबाला रहा, अत: यह आगम युग कहा जाता है। पांचवीं-छठी शताब्दी में जैन परम्परा में भी अन्य परम्पराओं की भांति दर्शन को तर्क के बल पर सुसंगत करने का प्रयास आंरभ हुआ। सिद्धसेन दिवाकर तथा समन्तभद्र से आरंभ हुए इस युग को अनेकान्त स्थापना युग कहा जाता है। __ आठवीं-नवीं शताब्दी तक विभिन्न दर्शनों के अनुयाइयों में सैद्धान्तिक संघर्ष चलते रहे और तर्क के आधार पर अपने-अपने मत की स्थापना की चेष्टा होती रही। इस काल की उपलब्धियों के आधार पर प्रमाण शास्त्र की स्थापना हुई। इस युग का आरंभ किया हरिभद्रसूरि तथा अकलंक ने / इसे प्रमाण शास्त्र स्थापना युग कहा जाता है। इस पंरपरा में अनेक मूर्धन्य विद्वान हुए जिनकी श्रृंखला की अंतिम कड़ी थे वादी देवसूरि / बारहवीं शताब्दी के इस महापुरुष के बाद जैन दार्शनिक क्षेत्र में एक अधंकार सा छा गया। अन्य दर्शनों में विकास क्रम जारी रहा और न्याय के क्षेत्र में नव्य न्याय शैली का उद्भव और विकास हुआ। जैन परम्परा इस विकास क्रम से लगभग पांच सौ वर्ष के दीर्घ काल तक अछूती ही रही। वह वादी देवसूरि के कार्यों को ही चरम उपलब्धि मान कूपमण्डूक बन गई। यशोविजय जी ही वे महापुरुष थे जिन्होंने इस रूढान्धता को तोड़ा और जैन दर्शन के नव्य न्याय यग की स्थापना की। उन्हें दिनकर की उपाधि देना उचित ही है क्योंकि अकेले यशोविजय जी द्वारा रचे साहित्य से ही उस युग का दार्शनिक साहित्य समृद्ध हुआ है। अन्य विद्वानों ने कतिपय छोटी-मोटी और गिनती की दार्शनिक पुस्तकों की रचना अवश्य की है। पर, यशोविजय-साहित्य को सागर मानें तो वे सभी बूंद सम हैं। जैन
SR No.032769
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhsagar, Rita Kuhad, Surendra Bothra
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1995
Total Pages286
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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