________________ स्वाऽऽगमं रागमात्रेण, द्वेषमात्रात्परागमम्। न श्रयामस्त्यजामो वा, किन्तु मध्यस्थंया दृशा॥7॥ नहीं राग भावों से स्वीकारे शास्त्र अपने मानकर। नहीं छोड़ते हैं द्वेष भावों से पराये जानकर // लेकिन हृदय में चिंतनाकर मध्यवृत्ति धारकर। तजते असत् हम शास्त्र सत् स्वीकारते भवपारकर // 7 // स्व आगम का स्वीकार राग के कारण नहीं करते और नहीं द्वेष के कारण पर शास्त्र का त्याग करते हैं, बल्कि मध्यस्थ दृष्टि से ही स्वीकार अथवा त्याग किया जाता है। Those who are equanimous accept or reject seriptures exclusively on merit irrespective of the source being their own sect or some other. {127}