________________ ( 42 ) होता है, अधिष्ठाता होता है / यदि ऐसा कोई अधिष्ठान तत्त्व न हो तो शून्य में संघात कैसे बन सकेगा ? असंख्य भूतकणों का एक साथ बँधकर एक उपयोगी, व्यवस्थित एवं गठित रूप में निष्पन्न होकर स्थिर रहना बिना किसी अधिष्ठान के कैसे सम्भव हो सकता है ? तो फिर इनका जो अधिष्ठान होता है उसे चेतन तत्त्व ही कहना होगा / क्योंकि यदि वह भी अचेतन ही हो तो वह भी एक संघात के समान ही होने के कारण भौतिक संघात का निष्पादक नहीं हो सकता / इस प्रकार भिन्न-भिन्न भौतिक संघात का अधिष्ठाता भिन्न-भिन्न चेतन ही उस संघात का अधिदैव है। . इस दृष्टि के अनुसार आकाश में चमकते हुये चाक्षुष प्रकाशमय तेजोगोलक में जो अधिदैव अनुप्रविष्ट है वही प्रजाजनों के स्तवन, पूजन, नमन आदि से तुष्ट हो वरदान देता है / वही अदिति के गर्भ से जन्म ग्रहण कर विश्वकर्मा की पुत्री से विवाह और वैवस्वत मनु जैसी सन्तानों को जन्मदान करता है। इसी दृष्टि के आधार पर इस धर्मप्राण कृतज्ञ देश में सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र, अग्नि, वायु, पृथ्वी, देव, गन्धर्व, मनुष्य, पशु, तिर्यक, नद, नदी, समुद्र, पर्वत, वनस्पति आदि प्रतीकों के पूजन का प्रचलन है। तीसरी दृष्टि का नाम है आध्यात्मिक दृष्टि / यह उक्त दोनों दृष्टियों से श्रेष्ठ, स्पष्ट और अधिक सूक्ष्मदर्शी है। इसकी परिकल्पना यह है कि जगत् के भिन्न भिन्न भौतिक संघातों में जो भिन्न भिन्न अधिदैव हैंचेतन तत्त्व हैं वे .एक ही देव-एक ही चेतन तत्त्व के अंश, प्रतिबिम्ब वा आभास हैं / इन समस्त अधिदेवों-सम्पूर्ण चेतनांशों का एक ही केन्द्र है। एक ही अखण्ड, शुद्ध, शाश्वत महाचैतन्य, एक ही देवाधिदेव विश्व के कण कण में व्याप्त है। उस एक ही सनातन, सर्वविधसीमातीत सत्र में यह सारा विश्वप्रपञ्च ग्रथित है। इस दृष्टि के अनुसार सम्पूर्ण संसार को भौतिक अन्धकार के गम्भीर गह्वर से निकाल उसे प्रकाशित करने वाला प्रकाशस्थ अग्निपिण्ड तथा उसके अधिष्ठाता अधिदैव दोनों को सत्ता प्रदान करने वाला परमसत्य, परमेश्वर, वेदान्तवेद्य, पुराण पुरुष, परात्पर विशुद्ध ब्रह्म ही यथार्थ सूर्य है | वैवस्वत मन्वन्तर, जिसका अट्ठाइसवां कलियुग इस समय चल रहा है, अाधिदैविकदृष्टिसिद्ध विवस्वान् सर्य के प्रतापशाली पुत्र वैवस्वत मनु से प्रवर्तित हुआ है / फलत: श्राज का समस्त मानवसमाज सर्यदेव की ही सन्तान है / अत: सूर्य की उपासना, उनके प्रति कृतज्ञता का प्रकाशन तथा उनके साथ सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयत्न अाज के मानव का परम कर्तव्य है। वंशानुचरितसर्ग, प्रतिसर्ग, वंश और मन्वन्तर के सम्बन्ध में कुछ संक्षिप्त चर्चा की जा चुकी है। अब वंशानुचरित की चर्चा का अवसर है। किन्तु यह अंश बड़ा