________________ ( 26 ) विष्णुः शरीरग्रहणमहमीशान एव च / कारितास्ते यतोऽतस्त्वां कास्तोतुंशक्तिमान् भवेत् ? // जगत् की रचना, रक्षा तथा संहार करनेवाले नारायण हरि को भी जो निद्रा के अधीन कर देती हैं / ब्रह्मा, विष्णु और शिव को जिनकी इच्छा से शरीर धारण करना पड़ता है उन महामहिमशालिनी महामाया की स्तुति कौन कर सकता है ? समस्त जिज्ञासु जगत महर्षि मार्कण्डेय का इस बात के लिये ऋणी है कि उन्होंने क्रौष्टुकि को श्रोला बना देवीतत्त्व के उस उपदेश को जिसे मेधा ऋषि ने राजा सुरथ और समाधि वैश्य को दिया था, जगत के समक्ष प्रस्तुत किया / यह उपदेश उपक्रम, उपसंहार सहित सप्तशती नाम से प्रख्यात है और मार्कण्डेय पुराण के 81 से 63 तक तेरह अध्यायों में वर्णित है / इस उपदेश से देवीतत्त्व के ऊपर पर्यात प्रकाश पड़ता है। सप्तशती के पहले अध्याय में जो मेधा ऋषि के अपने वचन हैं, उस अध्याय के अन्तिम भाग में ब्रह्मा द्वारा एवं चौथे, पांचवें तथा ग्यारहवें अध्याय में देवताओं द्वारा जो देवी की स्तुति है उन सब से देवीतत्त्व का जो परिचय प्राप्त होता है वह इस प्रकार है। देवी सत्त्व, रज और तम रूप प्रकृति तथा सत, चित और अानन्द रूप पुराण पुरुष की मिश्रित अयुतसिद्ध मूर्ति हैं। इन्हें केवल जड़ प्रकृति, माया, अविद्या, वासना, संवृति अथवा शुभाशुभ कर्मरूप अदृष्टात्मक शक्ति के रूप में देखना भूल है / यह चेतन एवं सक्रिय हैं। इनमें निग्रह और अनुग्रह का सामर्थ्य है / यह अनादि और अनन्त हैं। इनकी शक्ति अपार है / इनकी प्रभुता के समक्ष बड़े-बड़े शानी जनों की भी कुछ नहीं चलती। वे इनके हाथ के खिलौने हैं / ये ही चराचर जगत का सृजन करती हैं, ये ही बन्ध और मोक्ष का कारण हैं / ये बड़े-बड़े ईश्वरों की भी ईश्वरी हैं / मेधा ऋषि का यह कथन अक्षरशः यथार्थ है कि ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा / बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति // तया विसृज्यते विश्वं जगदेतचराचरम् / सैषा प्रसन्ना वरदा नृणां भवति मुक्तये // सा विद्या परमा मुक्तेर्हेतुभूता सनातनी / संसारबन्धहेतुश्च सैव सर्वेश्वरेश्वरी // ::. (मा० पु०८१ अ० )