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________________ ऐसे अपराध की कभी पुनरावृत्ति न होगी अतः उनका संहार न होना चाहिये / अब हमारी सम्मति है कि आप लोग युद्ध न करें क्योंकि नागों का प्रस्ताव मान लेने से आप दोनों के कर्तव्यों का पालन हो जाता है। अवीक्षित की माता, मरुत्त की पितामही तपस्विनी वीरा ने भी इसका समर्थन किया / फलतः नागों ने विषहर औषधियों का प्रयोग कर मुनिपुत्रों को जीवित कर दिया, मुनिगण प्रसन्न हो गये / नागलोक का त्राण हुश्रा / वीरा और भामिनी हर्षित हो उठीं / मरुत्त ने प्रसन्न हो माता-पिता को प्रणाम किया। अवीक्षित ने प्रमुदित हो उसे भूरि भूरि आशीर्वाद दिया। सब लोग प्रसन्न हो यथा स्थान चले गये। एक सौ बत्तीसवां अध्याय राजा मरुत्त ने अपने अठारह पुत्रों में सबसे जेष्ठ और श्रेष्ठ पुत्र नरिष्यन्त को अपना उत्तराधिकारी बनाया और स्वयं तपस्या के निमित्त वन को प्रस्थान किया। राजा नरिष्यन्त ने सोचा--''ऐसा कौन सा उत्तम कार्य है जिसे मेरे पिता तथा पूर्वजों ने नहीं किया है / सभी उत्तम कर्म वे कर डाले हैं / ऐसी स्थिति में उन्हीं कर्मों को करने में न तो कोई नवीनता होगी और न उतने से पूर्वजों को अपने वंश में कोई नया उत्कर्ष देख कर प्रसन्नता ही होगी। अत: उचित यह होगा कि जिन कर्मों को उन लोगों ने सकाम भावना से किया है उन्हीं को मैं निष्काम भावना से करूँ, उन लोगों ने बड़े बड़े यज्ञ स्वयं किये थे, मैं ऐसा करूँ कि दूसरे लोग भी बड़े बड़े यज्ञ कर सकें। यह निश्चय कर उसने एक ऐसे यज्ञ का अनुष्ठान किया जैसा उसके पूर्व किसी ने नहीं किया था / उस यज्ञ में उसने ब्राह्मणों को इतना अधिक धन दिया कि उन्हें फिर धन लेने की आवश्य. कता ही न रह गयी। इसका परिणाम यह हुआ कि उसने जब दूसरी बार यज्ञ करने का आयोजन करना चाहा तब यज्ञ कर्म के लिये उसे कोई ब्राह्मण ही न मिला / राजा ने ब्राह्मणों के घर जाकर उन्हें दान देना चाहा पर राजा के पूर्व दिये हुये धन से ही घर भरे रहने के कारण लोगों ने दान लेना अस्वीकार कर दिया। उस समय राजा ने कहा--"यह कितनी उत्तम बात है कि इस समय पृथ्वी पर कोई ऐसा ब्राह्मण नहीं है जिसे धन की कमी हो, पर यह तो अच्छा नहीं है कि धनबाहुल्य के कारण ब्राह्मणों का सहयोग न प्राप्त होने से यज्ञ का होना ही बन्द हो जाय / अतः उसने विशेष प्रार्थना कर कुछ
SR No.032744
Book TitleMarkandeya Puran Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year1962
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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