________________ ( 117 ) वरदान देते हुए कहा कि "वैवस्वत मन्वन्तर के अट्ठाईसवे युग में शुम्भ और निशुम्भ महान् असुर होकर पुनः उत्पात करेंगे। उस समय मैं नन्द के घर यशोदा के गर्भ से उत्पन्न हो कर उनका वध करूँगी तथा विन्ध्याचल में मेरा निवासस्थान होगा। उसके बाद वैप्रचित्त दानवों का जब उपद्रव बढ़ेगा तब मैं अत्यन्त भयंकर रूप में प्रकट हो उनका नाश करूंगी और रक्तदन्तिका नाम से प्रसिद्ध हूँगी। फिर जब पृथ्वी पर सौ वर्ष तक अनावृष्टि होगी और उसे मैं दूर करूँगी तब मेरा शाकम्भरी नाम प्रसिद्ध होगा। उसी समय दुर्ग नाम के महान् राक्षस का वध करने से दुर्गा और मुनिजनों को त्रास देनेवाले दानवों का नाश करने के लिये भीम रूप धारण करने के कारण भीमा नाम से मेरी प्रसिद्धि होगी। जब अरुण नामक महोत्पाती राक्षस का वध करने के लिये भ्रमर का रूप धारण करूँगी तब भ्रामरी नाम से मेरी ख्याति होगी / जब जब भी तुम देवताओं को दानवों से कष्ट पहुँचेगा तब तब मैं अवतार लेकर तुम्हारे शत्रुत्रों का नाश करूँगी। बानबेवाँ अध्याय इस अध्याय में बताया गया है कि जो लोग देवताओं द्वारा प्रयुक्त किये गये श्लोकों से देवी की स्तुति करेंगे अथवा मधुकैटभ-वध, महिषासुर-वध तथा शुम्भ, निशुम्भ-वध का कीर्तन करेंगे वे पाप, अापत्ति, दरिद्रता, इष्टवियोग, शत्रु, चोर, राजा, शस्त्र, अग्नि तथा जल के भय से मुक्त होंगे। उन्हें ग्रह-पीडा, दुःस्वप्न, तथा उपद्रव न होंगे। उन्हें राक्षस-बाधा, भूत-पिशाच-बाधा तथा प्रेत-बाधा न होगी। वे सब प्रकार के संकटों से मुक्त, सुखी और सब प्रकार से सम्पन्न होंगे। जो लोग पुष्पों और धूप-चन्दन आदि द्वारा उनका पूजन करेंगे उन्हें धन, पुत्र और सद्बुद्धि की प्राप्ति होगी। तिरानबेवाँ अध्याय ___यह दुर्गा सप्तशती का तेरहवाँ अर्थात् अन्तिम अध्याय है / इसमें बताया गया है कि मेधा ऋषि से महामाया की महिमा और उनकी अवतार-कथायें सुन कर सुरथ और समाधि देवी को प्रसन्न करने के लिये तपस्या करने चले गये / तीन वर्ष की निरन्तर तपस्या से प्रसन्न हो देवी ने उन्हें दर्शन दिया। वर माँगने का आदेश होने पर राजा ने वर्तमान और भावी जन्म में स्थायी राज्य तथा समाधि ने उत्तम ज्ञान मांगा। देवी ने कहा "राजन् तुम थोड़े ही दिनों में शत्रुत्रों को मार कर अपना खोया हुअा राज्य प्राप्त करोगे और मरने पर सूर्य