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हाथियों में गंधहस्ती को हाथीराज गिना जाता है। यहाँ परमपुरुष को गंधहस्ती की उपमा दी गई है। अन्य हाथी को दो दंतशूल होते है, गंधहस्ती को चार दंतशूल होते है। हाथी दांत को सफेद सोना कहा जाता है। कहा जाता है कि हाथी दांत हाथी के मृत्यु के बाद ही निकाले जा सकते हैं। लोकव्यवहार में कहा जाता है
जिंदा हाथी हजार का, मरे तो किंमत लाख।
मानव जिंदा लाख का, मरे तो किंमत राख। वाह! वाह! किंमत के पास मुझे अटकाकर आपने ही वाक्य पूरा किया। हजार के हाथी की किंमत मरने के बाद यदि लाख रुपयां है तो लाख रुपए की किंमतवाला (लाखना - लाखेणा)मानव को आप सव्वा लाख देड लाख दो लाख, पाँच लाख का गिनोगे परंतु आप में से कईयों ने राख शब्द बोला। ऐसा क्यों? इसके बारे पूछने से पूर्व हम स्वयं को अनमोल बनाने के लिए पुरिसवर गंधहत्थीणं की आराधना करते हैं। गंधहस्ती के भालपर आज्ञाचक्र के स्थानपर बाहर एक गोलाईवाला चक्र दिखाई देता है। इसे कुंभस्थल कहते है। यह कुंभस्थल श्रीयंत्र के जैसे आकार में उभराहुआ होता है। प्रत्येक गंध हस्ती को योग्य समय में इस स्थल से रस स्रावित होता हैं। इस रस को मदरस कहते है। उसमें से एक विशेष प्रकार की गंध झरती है। जिस हाथी को कुंभस्थल होता है, उसी हाथी को गंधहस्ती कहते है।
शास्त्र में आपने सुना होगा कि महाराजा चंडप्रद्योत हार और हाथी के लिए किसी युद्ध के आयोजन में लगे थे। युद्ध था कुणाल के साथ। अपने सैन्य को कमजोर समझकर कुणाल ने सेचनक नाम के गंधहस्ती को युद्ध मैदान में छोड़ दिया था। गंधहस्ती की गंधमात्र से सारा सैन्य अस्तव्यस्त हो गया था। परिस्थिति को जानकर महाराज चंडप्रद्योतने सामने अपना अनिलवेग नाम का गंधहस्ती छोडा था। जैसे ही युद्ध मैदान में सूंड उछालता हुआ, मद प्रसराता हुआ आता है और चंडप्रद्योत विजय प्राप्त कर लेता है।
संसार के थके हुए, हारे हुए हम अपने विजय की शोध में निकले हुए है। जितने के लिए हमें किसी सैन्य की जरुरत नहीं है। हमें तो आवश्यकता है मात्र एक गंधहस्ती की। एक गंधहस्ती आ जाते हैं तो हमारे सारे दुश्मन भग जाएंगे। शत्रुता को ही समाप्त कर देते हैं। शत्रुता ही जिनका शत्रु है वे गंधहस्ती है। गणधर भगवंत कहते हैं एक गंधहस्ती को साथ लो। जिसके कुंभस्थल में सवीर्य निरामगंध निकल रही हो। इस गंध से वे स्वयं भी मस्त रहते हैं और उनके पास जो आता है वे भी मदमस्त हो जाते हैं। यह एक ऐसा रस है जो झरता भी है और खुशबु भी देता है।
एक दिन जब मैं आईगराणं और पुरिसवरगंधहत्थीणं का संपुट कर रही थी तब एक ऐसी अनुभूति हुयी थी जो आनंददायी थी। भावस्थिति की वे क्षणे थी। परमात्मा के साथ संवाद चल रहा था। लग रहा था वास्तव में परमात्मा कुछ आदि करनेवाले हैं। हमें भी अपनी कुछ तैयारी करनी चाहिए। अंदर बाहर प्रभु कहाँ कौनसी आदि करेंगे यह सोचते सोचते मन में यही बात आई थी कि हे परमात्मा तु आदि तो कर देगा लेकिन आदि करने की जगह कौन सी होगी? जहाँ पर तु हमारे भीतर अनंत समाधि सुख की आदि करेगा। परमात्मा! तूहममें अनंत समाधि सुख की आदि करेगा पर हम फिर भी दुःखी के दुःखी रहेंगे। हमें ऐसा ही करने की आदत हो गई है। हम उन बच्चों की तरह है जो कितना भी नहलाया कितने भी नए कपडे पहनाए फिर भी वे वैसे के वैसे हो जाते हैं।