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तीसरी पहचान परिणाम की पहचान हैं। यह कठिन पहचान हैं। परिणाम से पहचानना मुश्किल हैं। इस प्रयोग के लिए सर्व प्रथम स्वयं को देखना, जानना, समझना पडेगा। आत्म सिद्धि में प्रथम गाथा के प्रथम चरण में यही कहा है, "सर्वदुःखो का कारण स्वयं के स्वरुपको नहीं समझना हैं।" परिणाम की पहचान के बिना कितना अधूरापन महसूस होता हैं ये तो आप कईबार अनुभव करते हैं। दुकान से कोई चीज खरीद के लाए हो, कंपनी का नाम थोडा फर्क नहीं समझ पाए और हलकी चीज दुकान वाले ने पकडा दी आप तुरंत कहेंगे दुकानवाला तो अच्छा दिखता था ऐसा निकलेगा पता नहीं था। कंपनी की चीजों को जाने दिजिए। २०० रु. के जुते लाते हो
और सब को बोलते हो सेम ऐसे ही जुते मैं ने दोस्त के देखे जो ६०० रु. में लाया था। यही जुते जब १५ दिन में चिंथडे होने लगते हैं तब आप कहते हैं, दुकान वाले ने धोखा दिया। ऐसे ही सब्जी, भाजी, साडी आदि कई चीजों में आपके साथ ऐसा होता हैं। तब आपको लगता है कि आप परिणाम से अनभिज्ञ होने के कारण फंस गये हो।
पुरुषोत्तमाणं परिणाम को जानते हैं। परिणाम की पूर्वाभिव्यक्ति और पश्चादभिव्यक्ति दोनों को जानने के कारण उचित प्रयोग करते हैं। हम परिणाम से अनभिज्ञ होने के कारण अपनी बुद्धि से उस परिस्थिति को अनुचित ठहराते हैं। समझ गयी मैं कि यह सैद्धांतिक बात आपको कठिन लगती हैं। उदाहरण से देखिए, भगवान महावीर के पास मुनिनंदिषेण ने दीक्षा ली। कुछ वर्ष संयम पाला फिर पतन हुआ। पुन: वे मार्गपर आए। इस बात पर आप क्या सोचोगे? कि महावीर ने श्रेणीक के पुत्र समझकर दीक्षा दे दी? भगवान जानते थे न कि इसका पतन होनेवाला हैं, फिर भी क्यों दीक्षा दी? यही प्रश्न कभी किसीने महावीर से पूछ लिया। भगवान ने कहा, ठीक हैं पता था परंतु मार्ग का प्रारंभ और पतन के मध्य काल में जो काम करना था वो कर लिया। उसी काम ने पतन के बाद मुनि को पुनः पदासीन किया। पुनः मार्गपर लाए। साधना की कठिन तपश्चर्या करवाई। पश्चादाभिव्यक्ति को जानने के कारण पूर्वाभिव्यक्ति का प्रयोग हुआ। .
___परिणाम के व्यक्त होने से पूर्व परिणाम का पता जान लेने पर परिवर्तन करने का अवसर प्राप्त होता हैं। कर्म की भाषा में इसे उदीरणा या निर्जरा कहा जा सकता है। कर्म के परिणाम प्रगट होने से पूर्व यदि उन्हें कम करना चाहे या संपूर्ण समाप्त करना चाहे तो काल हमें चुनौती देता हैं। संक्रमण, उदीरणा,निर्जरा आदि प्रक्रिया अव्यक्त परिणामों को व्यक्त होने से पूर्व व्यक्त होने की पात्रता होनी चाहिए।
हमारी समस्या यह है कि हम केवल जैसा दिखता हैं वैसे व्यक्त का स्वीकार करते हैं। व्यक्त की अव्यक्त सत्ता से हम अनजान या अनभिज्ञ हैं। व्यवहार में हम नहीं दिखनेवाले पर भी विश्वास करते हैं। देश-विदेश में जिन पार्टियों को हम नहीं जानते, न ही देख सकते केवल फोन से बात करते ही बडे-बडे बिझनेस कर लेते हैं। व्यवसाय तो छोडो व्यवहार में इंटरनेट से अनजान व्यक्तियों के साथ अच्छे घरों की लडकियाँ शादियां तय कर लेती है। ऐसे अनजान व्यक्ति के साथ जिंदगी के सौदे करते हुए इस कलियुग में अव्यक्त परमसत्ता के प्रति विश्वास क्यों नहीं करते हैं।
यहाँ परमात्मा को पुरषों में उत्तम ऐसा कहकर परमात्मा रुप में व्यक्त किए गए हैं। यह उत्तमता दस प्रकार से व्यक्त होती है। निगोदादि एकेन्द्रिय आदि अवस्था में भी ये गुण इन आत्माओं में निहित होते हैं। यद्यपि सामग्री
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