________________
बनता है। क्षयोपशम होते ही विश्व के धर्मास्तिकायादि षडद्रव्य और उनकी पर्यायें प्रकट हो जाती हैं। उनकी यथार्थता को सफल रुप देते हुए तीर्थंकर भगवान कहते है - " द्रव्य-गुण- प्रर्याय से मैं तीर्थ की अनुज्ञा देता हूँ।” अर्थात् अब आप यह आगम अन्यों को बोधान्वित करो। संबोधिदो ज्ञान और स्वाध्याय के रुप में प्रगट करो । स्वयं को देखते देखते केवलज्ञान प्राप्त कर परमात्मा संपूर्ण ब्रह्मांड को देखते हैं। स्वयं को जानना साधना का प्रथम और अंतीम साध्य है । जो स्वयं को जानता है वह जगत् को जानता है। जो एगं जाणई सो सव्वं जाई, जो सव्वं जाणई सो एगं जाणई। जगत् को जानकर तीर्थंकर तीर्थ की प्रतिष्ठा करते है। जिस वृक्ष के नीचे परमात्मा को केवलज्ञान होता है वह अशोक वृक्ष के उपर लगता है। उसे चैत्य वृक्ष कहते है। उस वृक्ष का महत्त्व इस लिए है कि केवलज्ञान होते ही तीर्थंकर प्रभु तीर्थ रचना का आयोजन बनाते है। तीर्थ का महत्त्व इस लिए है कि तीर्थंकर चले जाते है पर उनका तीर्थ हंमेशा रहता है। तीर्थंकर प्रभु स्वयं समवसरण में पधारकर देशना देने से पूर्व चैत्य वृक्ष को तीन बार मंत्रोच्चर के साथ प्रदक्षिणा देते है । प्रदक्षिणा करते समय प्रभु " णमो तित्थस्स” मंत्र का उच्चारण करते हैं। ऐसा प्रभु क्यों करते हैं आपको प्रश्न होगा ? परमात्मा इसका समाधान करते हैं तीर्थ शास्वत है । हमारे निर्वाण के पश्चात् भी तीर्थ रहता है। इस लिए तीर्थ को नमस्कार हो ।
तीर्थ को नमस्कार कर सिंहासनपर बिराजकर परमात्मा नाभि चक्र से ॐ का उच्चारण करते है। इस ध्वनि को सुननेवालों की मनोकामना पूर्ण होती है। मन में उठे प्रश्नोंका समाधान होता है । योग्यता के अनुसार संदेश प्राप्त होते है । परमात्मा की नाभि में लय होती है, स्वर में लय होती है और संदेश में भी लय होती है। ये तीनों लयें त्रिवलय बनकर परमात्मा के सातों चक्रों को प्रदक्षिणा करती हुई संपूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त हो जाती है। मार, मरकी, स्वचक्री - परचक्री, दुर्भिक्ष-दुकाल आदि सब भय इस लय में समा समाप्त हो जाते हैं ।
जो तिराता है वह तीर्थं है। जो डुबते हुए को बचाता है वह तीर्थ है। शासन सदा तीर्थंकरों का होता है। अनुशासन सदा छद्मस्थों का होता है । केवलज्ञान के बाद भगवंत अनुशासन नहीं करते हैं। इसीलिए गौतम स्वामी के केवलज्ञान हो जाने पर उनकी उपस्थिति होनेपर भी सुधर्मा स्वामी कों शासन सम्हलाया गया था। तीर्थ प्रवाह है उसमें तीर जाना है। परमात्मा के चरणों में समर्पित हो जाना होता है। जिनको तीरना आता है वे स्वयं को प्रवाह में प्रवाहित कर देता है। जो प्रवाहित हो जाता है उसे हाथ पांव को अधिक सक्रिय नहीं करना पडता है। उसे शांति से आराम पूर्वक स्वयं को केवल मात्र प्रवाह में सर्मपित और प्रवाहित करने की आवश्यकता है ।
तीर्थंकर तीर्थ करते क्यों है ? सभी जीवों का अतिंम जब मोक्ष है तो, तीर्थ क्यों बनाते हैं। उसका समाधान शास्त्रकार इसतरह कहते हैं
अणुलोम हेऊ तच्छीलिया ॥
तीन कारण से तीर्थंकर भगवंत तीर्थं की स्थापना करते है। पहले अनुलोम । परमात्मा की सभा में सभी तरह के लोग रहते है। सभी स्त्री-पुरुष, अनपढ पढे हुए, विद्वान पण्डित आदि सब तरह के श्रोता रहते हैं। उन सब के परमात्मा जब देशना देते हैं, वह देशना समान रुप से परिणत होती है। लोम अर्थात् रोम और रोम के साथ अनु शब्द लगा दिया। अर्थात् वारंवार । अर्थात् प्रत्येक प्रदेश में। जो परमात्मा की सभा में आते हैं उन सब के प्रति
47